________________ . [दशवकालिकसूत्र तथ्य को भी कैसे समझ सकता है ? जिस प्रकार महानगर में आग लगने पर अंधा (नेत्रविहीन) नहीं जानता कि उसे किस दिशा से भाग निकलना है, उसी प्रकार जीवों के विशेष ज्ञान के अभाव में अज्ञानी यह नहीं जानता कि उसे असंयमरूपी दावानल से कैसे बच कर निकलना है ? जो यह नहीं जानता कि क्या हितकर है, कालोचित है, क्या अहितकर है, उसका कुछ करना, आग लगने पर अंधे के दौड़ने के समान होगा।११ सोच्चा : व्याख्या-सोच्चा का अर्थ है-सुन कर / परन्तु क्या सुन कर ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार के द्वारा प्रयुक्त 'जाणई कल्लाणं, जाणइ पावर्ग', इन पदों को देखते हुए वृत्तिकार और चूर्णिकार ने यही अध्याहार किया है कि (1) सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ को सुनकर, (2) अथवा ज्ञानदर्शन-चारित्र को सुन कर, (3) या जीव, अजीव आदि तत्त्वों (पदार्थों) को सुन कर, (4) मोक्ष के साधन, तत्त्वों के स्वरूप और कर्मविपाक के विषय में सुन कर / 12 श्रति (श्रवण)का महत्त्व वर्तमान युग में जैसे प्रायः पढ़ कर श्रेय-अश्रेय का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, वैसा प्राचीन काल में नहीं था, प्रागम रचनाकाल से लेकर वोरनिर्वाण की दसवीं शती से पूर्व तक जैनागम प्रायः कण्ठस्थ थे। अागमों का अध्ययन, वाचन, पुनरावर्तन आदि प्राचार्य के मुख से सुनकर होता था। यही कारण है कि उत्तराध्ययन सूत्र में मनुष्यत्वप्राप्ति के बाद दूसरा दुर्लभ परम अंग श्रुति-श्रवण बताया गया है। श्रद्धा और आचरण का स्थान उसके बाद है।"3 साधुसाध्वी की पर्युपासना के स्थानांग सूत्र में 10 फल बताए हैं, उनमें सर्वप्रथम फल 'श्रवण' है, उसके पश्चात् ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, तप, व्यवदान, प्रक्रिया और अन्त में निर्वाण बताया है / अर्थात् --श्रवण का परम्परागत फल निर्वाण में परिसमाप्त होता है / उत्तराध्ययन में आगे मनुष्यशरीर के बाद धर्मश्रवण को, तथा अहीनपंचेन्द्रियत्व-प्राप्ति के पश्चात् उत्तम धर्मश्रुति को दुर्लभ बताया गया है / 14 इससे श्रवण या श्रुति का महत्त्व समझा जा सकता है। 111. (क) .......''जहा अंधो महानगरदाहे पलित्तमेव विसमं वा पविसति, एवं छेदपावगम जाणतो संसारमेवाणुपडति / " -अगस्त्य चूणि, पृ. 93 (ख) ..."महानगरदाहे नयगविउत्तो ण याणाति, केण दिसाभाएण मए गंतव्वं ति। तहा सो वि अन्नाणी नाणस्स विसेसं अयाणमाणो कहं असंजमदवाग्रो णिम्गच्छिहिति? --जिन. वृणि, पृ. 161 (ग) 'छेक'-निपुर्ण हितं कालोचितं, 'पापक' वा अतो विपरीतमिति / ततश्च तत्करणं भावतोऽकरण मेव / समग्रनिमित्ताभावात् अन्धप्रदीप्त-पलायनघुणाक्षरकरणवत् / " हारि. वृत्ति, पत्र 157 112. "सोच्चा नाम सुत्तस्थतदुभयाणि सोऊण, जाणदंसणचरित्ताणि वा सोऊण, जीवाजीवादी पयत्था वा सोऊण।" -जिन. च.. प्र. 161 113. (क) “गणहरा तित्थगरातो, सेसो गुरुपरंपरेण सुणेऊणं / " -अ. चू., पृ. 93 (ख) उत्तरा० 3 / 1 114. (क) सवणे णाणे य विनाणे पच्चक्खाणे य संजमे / अणण्हते तवे चेव वोदाणे अकिरिय निब्वाण / / -स्थानांग० 31415 (ख) 'माणुसं विगह लद्धसुई धम्मस्स दुल्लहा।' ----उत्तरा० 38 (ग) “अहीणपंचिदियत्त पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा"--उत्तरा० 10 // 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org