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________________ 120] [ दशवकालिकसूत्र प्रत्येक परिस्थिति में साधु अकरणीय कृत्य नहीं करता-कई साधक जब कोई देखता हो या परिषद् में हो, तब तो बहुत ही फूंक-फूंक कर चलते हैं, अपनी क्रिया-पात्रता दिखलाते हैं, किन्तु जब कोई न देखता हो, या अकेले में हो, तब वे अपनी त्यागवैराग्य-भावना को ताक में रख देते हैं। अन्तर्दृष्टिपरायण साधु-साध्वी सदैव आत्महित की दृष्टि से चलते हैं / वे गाढ़ कारणवश कभी अपवाद का सेवन करते हैं तो भी उनके मन में पश्चात्ताप होता है और वे प्रायश्चित्त लेकर प्रात्मशुद्धि भी कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि अध्यात्मरत श्रमण-श्रमणी के लिए दिन हो या रात, एकान्त हो या समूह, शयनावस्था हो या जागरणावस्था• वे हर समय, स्थान एवं परिस्थिति में सतर्क रहते हैं और अकरणीय कृत्य नहीं करते / पाप एवं ग्रात्मपतन से बचते हैं। वे परम (शुद्ध) प्रात्मा के सान्निध्य में रहते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने दिया वा राम्रो वा' इत्यादि पंक्तियाँ अंकित की हैं, जो प्रत्येक परिस्थिति, समय एवं स्थान-विशेष की सूचक हैं / एगओवा : आशय–'एगो' का शब्दश: अर्थ होता है, एकाकी या अकेला, परन्तु इसका वास्तविक अर्थ 'एकान्त में है। कई साधु एक साथ हों, किन्तु वहाँ कोई गृहस्थ आदि उपस्थित न हों तो किसी अपेक्षा से उन साधुनों के लिए इसे भी 'एकान्त' कहा जा सकता है / पृथ्वीकाय के प्रकार एवं उपयुक्त अर्थ-प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकाय के कई प्रकार बताए हैं / यदि वे सूर्यताप, अग्नि, हवा, पानी या मनुष्य के अंगोपांगों से बार-बार क्षण्ण होकर शस्त्रपरिणत न हुए हों तो सचित्त होते हैं। इनके उपयुक्त अर्थ क्रमशः इस प्रकार हैं-पुढवि-पृथ्वी, पाषाण, ढेला आदि से रहित पृथ्वी; भित्ति-(१) जिनदास महत्तर और टीकाकार के अनुसार 'नदी' (2) अगस्त्य चूणि के अनुसार-नदी-पर्वतादि की दरार, रेखा या राजि / शिला--विशाल पाषाण या विच्छिन्न विशाल पत्थर / लेलु-ढेला (मिट्टी का छोटा-सा पिण्ड या पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा)। ससरक्खं : दो रूप : दो अर्थ (1) ससरक्ष-राख के समान सूक्ष्म पृथ्वी की रज से युक्त, (2) सरजस्क-गमनागमन से अक्षुण्ण अरण्य रजकण जो प्रायः सजीव होते हैं, इसलिए सरजस्क पृथ्वी से संस्पृष्ट शरीर या वस्त्र को सचित्तसंस्पृष्ट माना है / 82 80. दशवै. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ 274 81. (क) 'सव्वकालितो णियमो त्ति कालबिसेसणं-दिता वा रातो वा सव्वदा / ' (ख) नेट्ठा अवत्थंतरविसेसणस्थमिद-सुते वा जहाणितनिद्दामोक्खत्थसुत्ते जागरमाणे वा सेसं कालं -अगस्त्यचूणि, पृ. 87 (ग) 'कारणिएण वा एगेण / ' –जिन. चूणि, पृ. 154 / (घ) दशवं. (मुनि नथमलजी) पृ. 148 82. (क) “पुढविग्गहणेणं पासाणलेट्ठ माईहिं रहियाए पुढवीए गहणं / ' (ख) 'भित्ती नाम नदी भण्णइ / ' –जिनदासचूणि, पृ. 154 'भित्तिः नदीतटी।' -हारि. वत्ति, पृ. 152 (घ) भित्ती नदी-पव्वतादितडी, ततो वा जं प्रबद्दलित ।:-अगस्त्य चुणि, पृ. 87 (ङ) 'सिला नाम विच्छिण्णो जो पहाणो, स सिला।' -जि. चू., पृ. 154 (च) 'विशाल: पाषाणः / ' -हा. ., पृ. 152 (छ) 'लेलू मट्टियापिंडो।' –अ. चू. पृ. 87, (ज) “लेलु लेटुनो।" -जि. चू. पृ. 154 (झ) “सरक्खो = सुसण्हो छारसरिसो पुढविरतो, सहसरखेण ससरक्खो।" --अग. चूगिग, पृ. 101 (अ) 'सह रजसा-अरण्यपांशुलक्षणेन वर्तत इति सरजस्कः / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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