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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [113 साध्वियों के लिए प्रथम पांच व्रतों को प्रधान गुणों की दृष्टि से महावत और सर्वरात्रिभोजनविरमणव्रत को उत्तर (सहकारी) गुणरूप मान कर उसे मूलगुणों से पृथक् समझाने हेतु केवल 'व्रत' संज्ञा दी है / यद्यपि मैथुन-सेवन करने वाले के समान हो रात्रिभोजन करने वाला भी अनुद्घातिक प्रायश्चित्त का भागी होता है, इस दष्टि से रात्रिभोजनत्याग का पालन उतना ही अनिवार्य माना है कि अन्य महाव्रतों का / रात्रि में भोजन करना, पालोकितपान-भोजन और ईर्यासमिति (भिक्षाटन के लिए देख कर चलने) के पालन में बाधक है, जो कि अहिंसा महावत की भावनाएँ हैं, तथा रात्रि में आहार का संग्रह (भोजन को संचित) रखना (सन्निधि) अपरिग्रह की मर्यादा में बाधक है / इन्हीं सब कारणों से रात्रिभोजन का निषेध किया गया है और रात्रिभोजनत्याग को अगस्त्यसिंह चणि में मूलगुणों की रक्षा का हेतु बताया गया है। यही कारण है कि रात्रिभोजनविरमण को मूलगुणों के साथ' प्रतिपादित किया गया है। जिनदास महत्तर के मतानुसार---प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का साधुवर्ग क्रमशः ऋजुजड़ और वक्रजड़ होता है, इसलिए वे रात्रिभोजनविरमण व्रत का, महाव्रतों की तरह पालन करें, इस दृष्टि से इसे महावतों के साथ बताया गया है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों का साधुवर्ग ऋजुप्राज्ञ होने से वह रात्रिभोजन को सरलता से छोड़ सकता है, इस दृष्टि से रात्रिभोजनविरमण व्रत को 2 उत्तर गुण माना है। सर्वरात्रिभोजनविरमण व्रत के पालन के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होने से पूर्व साधु-साध्वी वर्ग को इसका चार दृष्टियों से विचार करना आवश्यक है---(१) द्रव्यदृष्टि से-रात्रिभोजन का विषय प्रशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आदि वस्तु-समूह है। अशन-उस वस्तु को कहते हैं, जिसका क्षधानिवारण के लिए भोजन किया जाए, जैसे-चावल, रोटी आदि / कहते हैं जो पिया जाए; जैसे—द्राक्षा का पानी, संतरे या मौसम्बी का रस, आम्ररस, इक्षुरस व अन्य सभी प्रकार के पेय आदि / खाद्य-उसे कहते हैं, जो खाया जाए, जैसे-मोदक, खजूर, सूखे मेवे, पके फल आदि / स्वाद्य-उसे कहते हैं, जिसका मुखशुद्धि के या मुंह का जायका ठीक रखने के लिए उपयोग किया जाए, जैसे—सौंफ, इलायची, सोंठ आदि / क्षेत्रदृष्टि से उसका विषय मनुष्यलोक है। कालदृष्टि से---उसका विषय रात्रि है, और भावदृष्टि से--(पूर्वोक्त) चतुर्भग उसका हेतु है / शेष 'तीन करण, तीन योग से, यावज्जीव' रात्रिभोजनत्याग की व्याख्या पहले की जा चुकी है / 73 व्रत-ग्रहण-पालन : केवल प्रात्महितार्थ-प्रतिज्ञा का यह ('अत्तहियट्टयाए.') सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट है कि साधु-साध्वी वर्ग पूर्वोक्त महाव्रतों का रात्रिभोजनविरमण व्रत को इहलौकिक-पारलौकिक सुख के लिए, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, प्रशंसा या यशकीर्ति के लिए अथवा किसी अन्य भौतिक लाभ के लिए अंगीकार या पालन नहीं करता, न किसी देवी, मानुषी या भागवती शक्ति को प्रसन्न करने की दृष्टि से ऐसा करता है, अपितु आत्महित के लिए ही इन महाव्रतों को स्वीकार 71. कि रातीभोयणं मूलगुणः उत्तरगुण: ? उत्तरगुण एवायं / तहावि सम्वभूलगुणरक्खाहेतुत्ति मूलगुणसम्भूतं पढिज्जति / --अगस्त्यचूणि, पृ. 86 72. परिमजिणकाले परिसा उज्जजडा. पच्छिमजिणकाले परिसा वंकजडा. प्रतोनिमित्तं महन्वयाण उपरि ठवियं जेण तं महत्वयमिव मन्नता ण पिल्लेहिति, मज्झिमगाणं पुण एवं उत्तरगुणेसु कहियं, कि कारणं? जेण ते उज्जुपण्णत्तणेण सुहं चेव परिहरंति / -जिन. चूणि, पृ. 153 73. असिज्जइ खुहितेहि जं तमसणं जहा-करो एवमादीति, पिज्जतीति पाणं, जहा-मुद्दियापाणगं एवमाइ, खज्जतीति खादिमं, जहा-मोदगो एवमादि, सादिज्जति सादिमं, जहा---सुठिगुलादि / -जि. च., 152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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