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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [107 अनुसार भी सर्वप्राणातिपातविरमण महावत को प्रथम स्थान दिया गया है। (3) चूर्णिद्वय के अनुसार---अहिंसा मूलवत है, अथवा प्रधान मूलगुण है, क्योंकि 'अहिंसा परमधर्म' है। शेष महावत इसी (अहिंसा) के अर्थ (प्रयोजन) में विशेषता लाने वाले हैं, अथवा शेष महाव्रत उत्तर गुण हैं, क्योंकि वे अहिंसा के ही अनुपालन के लिए प्ररूपित हैं। (4) पांचों महाव्रतों में अहिंसा ही प्रधान है, शेष सत्य आदि महाव्रत, धान्य की रक्षा के लिए खेत के चारों ओर लगाई गई बाड़ के समान अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए होने से उसी के अंगभूत हैं। कहा भी है 'सभी जिनवरों ने एक प्राणातिपात-विरमण को ही मुख्य व्रत कहा है, शेष (मषावादविरमणादि) व्रत उसी की रक्षा के लिए हैं।' सब पापों में मुख्य पाप हिंसा ही है, इसलिए उसकी निवृत्ति करने वाला अहिंसा-महाव्रत भी सब में प्रधान है। एक प्राचार्य ने कहा है-असत्यवचन आदि सभी प्रात्मा के परिणामों को हिंसा के कारण होने से एक प्रकार से हिंसारूप ही हैं। (अतः हिंसा से विरतिरूप अहिंसा-महाव्रत ही मुख्य है।) मषावादविरमण ग्रादि शेष महाव्रतों का कथन केवल शिष्यों को स्पष्टतया समझाने के लिए किया गया है / इन सब कारणों से अहिंसामहाव्रत को प्राथमिकता दी गई है / 56 प्राणातिपात-विरमण : व्याख्या-प्राणातिपात का अर्थ है-प्राणी के दस प्राणों में से किसी भी प्राण का प्रतिपात-वियोग-विसंयोग करना। शास्त्र में दस प्राण कहे गए हैं.-"श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण, चक्षुरिन्द्रियबलप्राण, घ्राणेन्द्रियबलप्राण, रसनेन्द्रियबलप्राण, स्पर्शेन्द्रियबलप्राण, मनोबलप्राण, वचनबलप्राण, कायबलप्राण, श्वासोच्छवासबलप्राण और आयुष्यबलप्राण / " इन दस प्राणों का वियोग करना हिंसा है / अथवा प्राणातिपात का अर्थ है--जीवों को किसी प्रकार का दुःख (कष्ट) पहुँचाना / प्राणातिपात के बदले यहाँ जीवातिपात न कहने का एक कारण यह है कि केवल जीवों को मारना ही अतिपात (हिंसा) नहीं है, किन्तु उनके प्राणों को किसी प्रकार का दुःख पहुँचाना भी हिंसा है। दूसरा कारण यह है कि जीव (आत्मा) का अतिपात (नाश) तो होता ही नहीं है, वह तो सदा नित्य है, अविनाशी है। अतिपात (वियोग या नाश) केवल प्राणों का होता है और प्राणों 56. (क) पढमं ति नाम सेसाणि मुसावादादीणि पडुच्च एतं पढमं भषणइ। --जिन. चूणि., पृ. 144 (ख) सूत्रक्रमप्रामाग्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमम् / -हारि. वृत्ति, पत्र 144 (ग) महाव्वतादौ पाणातिवातानो वेरमणं पहाणो मूलगुण इति, जेण 'अहिंसा परमो धम्मो', सेसाणि महन्वताणि एतस्सेव प्रत्थविसे सगाणीति तदणंतरं / -अगस्त्य चूणि., पृ. 82 (घ) ..."एतं मूलवयं, अहिंसा परमो धम्मोत्ति, सेसाणि पुण महव्वयाणि उत्तर गुणा, एतस्य चेव अणुपालणत्थं परूवियाणि। -जिन, चूणि., पृ. 147 (ङ) दशव. (प्राचारमरिणमंजूषाटीका) भा. 1 पृ. 238 / 'एग चिव इत्थ वयं निदि जिगवरेहिं सब्वेहिं / पाणाइवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खदा / / ' (च) प्रात्मपरिणामहिंसनं हेतुत्वात् सर्वमेव हिंसतत् / अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय / –दशव. (मा. प्रात्मारामजी म.) पृ. 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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