________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार कथा] [67 सौवर्चल प्रादि लवण यहाँ 6 प्रकार के लवण सचित्त हों तो अग्राह्य बताए हैं-(१) सौवर्चल, (2) सैन्धव, (3) रोमा, (4) सामुद्र, (5) पांशुक्षार पोर (6) काला लवण / सौवर्चलसंचल नमक / अगस्त्य चूणि के अनुसार उत्तरापथ के एक पर्वत की खान से निकलता था, वह सौवर्चल लवण है / सम्भव है इसे 'लाहौरी नमक' कहते हों / सैन्धव--सेंधा नमक, सिन्धु देश के पर्वत की खान से पैदा होने वाला नमक / प्राचार्य हेमचन्द्र इसे (सिन्धु) नदी में उत्पन्न होने वाला तथा हरिभद्र सूरि सांभर का नमक मानते हैं / रोमालवण : अर्थ-रूमा देश में होने वाला, रूमाभव, सांभर का नमक या रुमा अर्थात् लवण की खान में उत्पन्न होने वाला। सामुद्रलवण ---समुद्र के पानी को क्यारियों में भर कर जमाया जाने वाला नमक सामुद्र लवण, सांभर का लवण / पांशुखार-ऊपर जमीन से निकाला हुआ या खारी मिट्टी से निकाला हुआ क्षार नमक / कालालवण-चूणि के अनुसार-कृष्ण नामक, सैन्धवपर्वत के बीच-बीच खानों में होने वाला अथवा दक्षिण समुद्र के निकट होने वाला। धूवणेत्ति : तीन रूप : तीन अर्थ-(१) धूमनेत्र-मस्तिष्कपीड़ा का रोग न हो, इस दृष्टि से धूम्रपान करना, (2) धूमवत्ति-धूमपानार्थ उपयुक्त होने वाली वत्ति (शलाका) रखना, उस वत्तिका का एक पावं घी आदि स्नेह से चुपड़ कर धूमनेत्र पर लगाया जाता था, और दूसरे पार्श्व पर आग लगाई जाती थी। यह धूमपान खांसी आदि को मिटाने के लिए वत्तिका द्वारा किया जाता था। (3) धूपन-रोग, शोक आदि से बचने के लिए या मानसिक आह्लाद के लिए धूप का प्रयोग करना अथवा अपने वस्त्र, शरीर या मकान को धूप से सुवासित करना / ये सब अनाचीर्ण हैं / / -...--- - - 39. (क) 'उत्तरापहे पन्वतस्स लवणखाणीसु संभवति / ' –जिन. चूणि, पृ. 62 (ख) सोवच्चलं नाम सेंधवलोणपन्वयस्स अंतरंतरेस लोणखाणीग्रो भवति / ' जिन. चुणि, प. 115 (ग) सेंधवं सेंधवलोणपन्वते संभवति। -अगस्त्य. चणि, पृ. 62 (घ) सेंधवं तु नदीभवम् / ' –अभि. चि. 417 (ङ) (सेंधवं) लवणं च सांभरिलवणम् / —हारि. वृत्ति, पत्र 118 (क) “रुमालोणं रुमाविसए भवइ।" -जि. चू., पृ. 115, (ख) 'रुमा लवणखानिः स्यात् / ' अभिधानचिन्तामणि, 4-7 (ग) सामुद्दलोणं समुद्दपाणीयं, तं खडीए निग्गंतुण रिणभूमिए पारिज्जमाणं लोणं भवइ / ' -जि. चू., पृ. 115 (घ) 'सांभरीलोणं सामुद्द' -अ. चू., पृ. 62 (ङ) 'पांशुखारश्च ऊपरलवणं / ' —हारि. टी , पत्र 118 (च) 'तस्सेव सेन्धवपव्वयस्त अंतरतरेसु काललोणखाणीयो भवति। -जिन. च., पृ. 115 (छ) 'काललवणं सौवर्चलमेवागन्धं दक्षिण समुद्रसमीपे भवति इत्याह / ' -चरक. सू. 27-296, पाद टि. 1 41. (क) धूमं पिबति-"मा शिररोगातिणो भविस्स्संति आरोगपडिकम्मं / प्रहवा धूमणेत्ति धूमपानसलाका, धूवेति अप्पाणं वत्थाणि वा। -अग. चू., पृ. 62 (ख) चरक., सूत्र, 5-23 (ग) तथा नो शरीरस्स स्वीयवस्त्राणां वा धूपनं कुर्यात्, नाऽपि कासाद्यपनयनाथ तं धूमं योगवर्तिनिष्पादि तमापिबेदिति ।-सु. 2-9-15 टीका, पत्र 299 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org