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________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा] गया है कि जो भिक्षु अकिंचन और रूक्षजीवी है, उसका गौरव (सम्मान) प्रिय, अथवा प्रशंसाकामी होना-पाजीव है। (आजीवत्तिक) भिक्षु इस तत्त्व को नहीं समझता हुआ, पुनः पुनः भवभ्रमण करता है।" व्यवहार भाष्य में प्राजीव से जीने वाले भिक्षु को कुशील कहा गया है। तथा यह उत्पादना के 10 दोषों में से एक है। निशोथभाष्य में आजीववृत्तिता से प्राप्त आहार का सेवन करने वाले को प्राज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व, और विराधना का भागी बताया है / प्राजीवत्ति से जीने वाला माधु जिह्वालोलुप बन जाता है। वह मुधाजीवी नहीं रहता। उसमें दीनवृत्ति प्रा जाती है / 34 तप्तानि त भोजित्व : विश्लेषण- तप्त और अनिर्वत ये दोनों विशेषण मिश्र जल तथा वनस्पति के लिए यहाँ प्रयुक्त हैं। जो जल गर्म (तप्त) होने के बाद अमुक समयावधि के बाद ठंडा होने से सचित्त हो जाता है, उसे तुप्तानित जल कहते हैं / अगस्त्य सिंह चूणि के अनुसार ग्रीष्मकाल में एक अहोरात्र के पश्चात् तथा हेमन्त और वर्षा ऋतु में पूर्वाह्न में गर्म किया हुआ जल अपराह्न में सचित्त हो जाता है। तप्तानिवृत जल का एक अर्थ यह भी है कि जो जल गर्म तो हुआ हो, किन्तु पूर्णमात्रा में अर्थात्-तीन बार उबाल आया हुआ (त्रिदण्डोद्वत्त) न हो वह तप्तानित जल है / इसी शास्त्र में तप्तप्रासुक जल लेने की आज्ञा है। जल और वनस्पति सचित्त होते हैं, वे शस्त्रपरिणत होने या अग्नि में उबलने पर अचित्त हो जाते हैं। किन्तु जल और वनस्पति, यथेष्ट मात्रा में उबाले हुए न हों तो उस स्थिति में 'मिथ' (कुछ सचित्त-कुछ अचित्त) रहते हैं। इस प्रकार के पदार्थों को तप्तानिर्वत कहते हैं। तप्तानिर्वत के साथ 'भोजित्व' शब्द है, इसलिए इसका सम्बन्ध 'भक्त और पान' दोनों से है। कुछ अनाज (धान्य) जो थोड़ी मात्रा में, कहीं भुने हुए हों, कहीं नहीं, वे भी 'तप्तनिवत' भोजन हैं / 35 (घ) 'पाजीवत्तिता जात्याद्याजीबनेनात्मपालनेत्यर्थ: इयं चानाचरिता।' -हा. टी., पत्र 117 (1) जातिः ब्राह्मणादिका''अथवा मातुः समुत्था जातिः, कुल-उग्रादि, अथवा पितसमुत्थं कुलम् / कर्म कृष्यादिः, अन्ये त्वाह:-अनाचार्योपदिष्ट कर्म, शिल्प-चूर्णन-सीवनप्रभति, प्राचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति / गण:-मल्लादिवृन्दम् / —पिण्डनियुक्ति 438 टीका (च) लिंगं --साधुलिगं तदाजीवति, ज्ञानांदिशून्यस्तेन जीविकां कल्पयतीत्यर्थः / ---स्था. 571, टीका, प. 289 (छ) मल्लगणादिभ्यो गणेभ्यो गणविद्याकुशलत्वं कथयति। तपसः उपजीवना, क्षपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति / श्र तोपजीवना-बहुश्र तोऽहमिति। -व्यवहार भाष्य 253 टीका (ज) सा चाजीवना द्विधा-सूचया, असूचया च / तत्रा मूचा वचनं भंगिविशेषेण कथनम् असूचा-स्फुटवचनेन / --पिण्डनियुक्ति, 437 टीका 34. (क) सूत्र कृ. 1113 / 12 (ख) उत्तरा. 15316 (ग) आवश्यक सूत्र (घ) निशीथ भाष्य गा. 4410 (क) तत्तं पाणीयं तं पुणो सीतलीभूतमनिब्वडं भण्णइ तं च ण गिण्हे, रत्तिपसियं (अहोरतेण) सचित्ती भवइ, हेमन्तवासासु पुवण्हे कयं अवरण्हे सचित्तीभवति, एवं सचित्तं जो भुजइ सो तत्तानिम्बुडभोई भवइ। --जिन. चूर्णि, पृ. 114 / / (ख) 'जाव णातीव अगणिपरिणतं तं तत्त-अपरिणिबुडं / ' अहवा सत्तमदि तिण्णिवारे अणुव्वत्तं अणिन्वुडं / -अगस्त्य. चूर्णि, पृ. 61 (ग) तप्ताऽनितमोजित्वं--तप्तं च तदनिवतं च-अत्रिदण्डोद्वत्तं चेति विग्रहः / उदकमिति विशेषणा ऽन्यथानुपपत्त्या गम्यते, तदभोजित्वं-मिश्रसचित्तोदकभोजित्वमित्यर्थः / --हा. टी., प. 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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