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________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्यपूर्वक] अर्थ--[१६] सम्बुद्ध, प्रविचक्षण और पण्डित ऐसा ही करते हैं / वे भोगों से उसी प्रकार निवृत्त (विरत) हो जाते हैं, जिस प्रकार वह पुरुषोत्तम रथनेमि हुए // 11 // विवेचन-प्रस्तुत उपसंहारात्मक अन्तिम गाथा में सम्बुद्ध, पण्डित एवं विचक्षण साधकों को पुरुषोत्तम रथनेमि की तरह कामभोगों से विरत होने की प्रेरणा दी गई है। सम्बुद्धा, 'पंडिया' एवं 'पवियक्खणा' में अन्तर--प्रश्न होता है कि 'सम्बुद्धा, पंडिया और पवियक्खणा' ये तीनों शब्द एकार्थक प्रतीत होते हैं, फिर इन तीनों को प्रस्तुत गाथा में अंकित क्यों किया गया ? क्या एक शब्द से काम नहीं चल सकता था? इसका समाधान प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने इस प्रकार किया है—यद्यपि स्थल दृष्टि से देखने पर तीनों समानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु ये विभिन्न अपेक्षाओं से अलग-अलग अर्थों को द्योतित करते हैं / यथा--जो सम्यग्-दर्शनसहित बुद्धिमान होता है, वह सम्बुद्ध कहलाता है / अर्थात्--सम्यकदर्शन की प्रधानता से साधक सम्बुद्ध होता है अथवा विषयों के स्वभाव को जानने वाला सम्बुद्ध होता है / पण्डित का अर्थ है- सम्यग्ज्ञानसम्पन्न / अतः सम्यग्ज्ञान की प्रधानता से साधक पण्डित कहलाता है / प्रविचक्षण का अर्थ है--सम्यकचारित्र-सम्पन्न, रु–संसारभय से उद्विग्न / सम्याचारित्र की प्रधानता से साधक प्रविचक्षण कहलाता है। शास्त्रकार का तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय को जो धारण करता है वह कामभोगों से उसी प्रकार निवृत्त हो जाता है, जिस प्रकार पुरुषोत्तम रथनेमि हो गए थे।" संयमविचलित को पुरुषोत्तम क्यों ? प्रश्न होता है--विरक्तभाव से दीक्षित होने पर भी राजीमती को देख कर उनके प्रति सराग भाव से श्री रथनेमि का चित्त चलायमान हो गया और वे संयम से चलित होकर राजीमती से विषयभोगों की याचना करने लगे। फिर उन्हें पुरुषोत्तम क्यों कहा गया? इसका समाधान यह है कि मन में विषयभोगों की अभिलाषा उत्पन्न होने पर कापुरुष तदनुरूप दुष्प्रवृत्ति करने लगता है, परन्तु पुरुषार्थी पुरुष कदाचित् मोहकर्मोदयवश विषयभोगों की अभिलाषा उत्पन्न हो जाए और उसे किसी का सदुपदेश मिल जाए तो वह पापभीरु अपनी गिरती हुई आत्मा को पुनः संयमधर्म में सुस्थिर कर लेता है। उसे पाप से वापस मोड़ लेता है। रथनेमि का चित्तरूपी वृक्ष विषयभोग-दावानलजन्य संताप से संतप्त हो गया था, किन्तु तत्काल वैराग्य-रस की वर्षा करने वाले राजीमती के वचन-मेघ से सींचे जाने पर शीघ्र ही संयमरूपी अमृत के रसास्वादन में तत्पर हो गया। अतः अपनी गिरती हई आत्मा को पनः स्थिर कर रथनेमि ने जो प्रबल परुषार्थ दिखलाया तथा एकान्तस्थान में विषयभोग का प्रबल सान्निध्य रहने पर भी राजीमती की शिक्षा से इन्द्रियनिग्रह करके विषयों को विषतुल्य समझ कर तुरंत उनको त्याग दिया, और वे प्रायश्चित्तपूर्वक 51. (क) पंडिया णाम चत्ताणं भोगाणं पडियाइणे जे दोसा परिजाणंति पंडिया। -जि. चू. पृ. 92 (ख) पण्डिता: सम्यग्ज्ञानवन्तः। --हा. टी. पत्र 99 (ग) संबुद्धा बुद्धिमन्तो सम्यग्दर्शनसाहचर्येण दर्शनकोभावेन वा बुद्धा-सम्बुद्धा-सम्यग्दृष्टयः, विदितविषय स्वभावाः। -हा. टी. पत्र 99 (घ) प्रविचक्षणा:-चरणपरिणामवन्तः अवद्यभीरवः। --हा. टी. पत्र 99 (ङ) बज्जभीसणा णाम संसारभयुविग्गा, थोवमवि पावं णेच्छति। -जि. चू. पृ. 92 (च) दशवं. (आ. आ.) पृ. 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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