________________ दसवें उद्देशक में भाषा की प्रगाढ़ता, परुषता प्रादि का विवेचन कर उसके प्रायश्चित्त का वर्णन किया है। आधार्मिक आहार के दोष व प्रायश्चित्त, रुग्ण की वैयावृत्य, उसकी यतना, उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। वर्षावास पर्युषणा के एकार्थक शब्द दिये गये हैं / आर्य कालक की भगिनी सरस्वती जो अत्यन्त रूपवती थी-उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल द्वारा उसके अपहरण आदि की कथा दी गई है। ग्यारहवें उद्देशक में पात्र-ग्रहण की चर्चा है। भय के पहले चार भेद किये हैं—(१) पिशाच प्रादि से उत्पन्न भय, (2) मनुष्यादि से उत्पन्न भय, (3) बनस्पति से उत्पन्न भय और (4) मकस्मात् उत्पन्न होने वाला भय / फिर इहलोक, परलोक आदि सात भय बताये हैं। अयोग्यदीक्षा का निषेध करते हुए कहा है कि अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां और दस प्रकार के नपंसक ये अयोग्य हैं। बालदीक्षा के तीन भेद किये हैं-(१) सात-आठ वर्ष का बालक उत्कृष्ट बाल है, (2) पांच-छह वर्ष की आयु वाला मध्यम बाल है और (3) चार वर्ष तक की आयु वाला जघन्य बाल है। ये सभी दीक्षा के अयोग्य हैं। आठ वर्ष से अधिक आयु वाला बालक ही दीक्षा के योग्य माना गया है। वृद्ध, रोगी, उन्मत्त, मूढ आदि जो दीक्षा के अयोग्य हैं, उनका भी विविध भेदों से वर्णन किया है। प्रसंगानुसार सोलह प्रकार के रोग, आठ प्रकार की व्याधियों का भी निरूपण है। व्याधि और रोग में यही अन्तर है कि व्याधि का नाश शीघ्र होता है, किन्तु रोग का नाश लम्बे समय में होता है। बालमरण और पण्डितमरण पर भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है। बारहवें उद्देशक में प्रसप्राणी सम्बन्धी बन्धन व मुक्ति, प्रत्याख्यान, भंग आदि का वर्णन हुआ है। तेरहवें उद्देशक में स्निग्ध पृथ्वी, शिला आदि पर कायोत्सर्ग, गृहस्थ को कटुक वचन, मन्त्र, लाभ व हानि, धातु का स्थान आदि बताना, वमन विरेचन प्रतिकर्म करना, पार्श्वस्थ कुशील की प्रशंसा व वन्दन, धात्रीपिण्ड, दूतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, चिकित्सापिण्ड, क्रोधादिपिण्ड का भोग करना ये सभी चतुर्लघु प्रायश्चित्त के योग्य हैं। चौदहवें उद्देशक में पात्र सम्बन्धी दोषों का निरूपण कर उससे मुक्त होने के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। पन्द्रहवें उद्देशक में श्रमण-श्रमणियों को सचित्त ग्राम खाने का निषेध किया है। द्रव्य प्राम के उस्से तिम, संसेतिम, उवक्खड और पालिय ये चार भेद हैं और पलित प्राम के चार प्रकार बताये हैं। श्रमण-श्रमणियों की दृष्टि से तालप्रलम्ब के ग्रहण की विधि पर भी प्रकाश डाला है। __सोलहवें उद्दे शक में श्रमण को देहविभूषा और अतिउज्ज्वल उपधि धारण का निषेध किया है। श्रमणश्रमणियों को ऐसे स्थान पर रहना चाहिए जहां पर रहने से उनके ब्रह्मचर्य की विराधना न हो। जुगुप्सित यानि घृणित कुल में आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए / जुगुप्सित इत्वरिक और यावत्कथिक रूप में दो प्रकार हैं। सूतक आदि वाले घर कुछ समय के लिए जूगुप्सित होते हैं। लुहार, कलाल, चर्मकार, ये यावत्कपिक-जुगुप्सित कुल हैं। पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में स्थूणा पर्यन्त और दक्षिण में कौशाम्बी से लेकर उत्तर में कुणाला पर्यन्त पार्यदेश है, जहाँ पर श्रमण को विचरना चाहिए। भाष्यकार की भी यही मान्यता रही है। स . . सत्रहवें उद्देशक में गीत, हास्य, वाद्य, नत्य, अभिनय आदि का स्वरूप बताकर श्रमण के लिए उनका आचरण करना योग्य नहीं माना गया है और प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org