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________________ षट्जीवनिकाय की यतना, उसमें लगने वाले दोष, अपवाद और प्रायश्चित्त का पीठिका में विवेचन किया गया है। प्रशन, पान, वसन, वसति, हलन-चलन-शयन, भ्रमण, भाषण, गमन, आगमन आदि पर विचार किया। गया है। प्राणातिपात का विवेचन करते हुए मृषावाद को लौकिक और लोकोत्तर इन दो भागों में विभक्त किया गया है। लौकिक मृषावाद में शशका, एलाषाढ़ मूलदेव, खिण्डपाणा इन चार धुर्तों के आख्यान हैं। इस धर्ताख्यान का मूल आधार आचार्य हरिभद्रकृत धर्ताख्यान की प्राचीन कथा है। इसके बाद लोकोत्तर मृषावाद, अदत्तादान, मथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन का वर्णन है, जो दपिका सम्बन्धी और कल्पिका सम्बन्धी दो भागों में विभक्त है। दपिका में उन विषयों में लगने वाले दोषों का वर्णन है और उन दोषों के सेवन का निषेध किया गया है। काल्पिका में उनके अपवादों का वर्णन है / मूलगुणप्रतिसेवना के पश्चात् उत्तरगुणप्रतिसेवना का वर्णन है। उसमें पिण्डविशुद्धि प्रादि का वर्णन है / पीठिका के उपसंहार में इस बात पर प्रकाश डाला है कि निशीथपीठिका का सूत्रार्थ बहश्रत को ही देना चाहिए, अयोग्य पूरुष को नहीं। प्रथम उद्देशक में चतुर्थ महाव्रत पर विस्तार से विश्लेषण है। इसमें पांच प्रकार की चिलिमिलिकाओं को ग्रहण करना, उसका प्रमाण और उपयोग पर प्रकाश डाला है। लाठी और उसकी उपयोगिता पर भी विचार किया गया है। वस्त्र फाड़ने, सीने आदि के नियमोपनियम भी बताये हैं। द्वितीय उद्देशक में पादपोंछन के ग्रहण, सुगन्धित पदार्थों के संघने, कठोर भाषा का उपयोग करने तथा स्नान आदि करने का निषेध है और दाता की पूर्व व पश्चात् स्तुति का भी निषेध किया गया है। द्रव्यसंस्तव 64 प्रकार का है। उसमें जव, गोधूम, शालि प्रादि 24 प्रकार के धान्य ; सुवर्ण, तंब, रजत, लोह, शीशक, हिरण्य, पाषाण, बेर, मणि, मौक्तिक, प्रवाल, शंख, तिनिश, अगरु, चन्दन, अभिलात वस्त्र, काष्ठ, दन्त, चर्म, बाल, गन्ध, द्रव्य औषध ये 24 प्रकार के रत्न; भूमि, घर, तरु ये तीन प्रकार के स्थावर; शकट आदि और मनुष्य ये दो प्रकार के द्विपद; गौ, उष्ट्री, महिषी, अज, मेष, अश्व, अश्वतर, घोटक, गर्दभ, हस्ती ये दस प्रकार के चतुष्पद और ६४वां कुप्य उपकरण है। शय्यातर का पिण्ड अग्राह्य है। उसे ग्रहण करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त प्राता है / (1) सागारिक कौन होता है, (2) वह शय्यातर कब बनता है, (3) उसके पिण्ड के प्रकार, (4) अय्यातर कब बनता है, सागारिक किस संयत द्वारा परिहर्तव्य है, (6) सामारिक-पिण्ड के ग्रहण से दोष, (7) किस परिस्थिति में सागारिकापिण्ड ग्रहण किया जा सकता है, (8) यतना से ग्रहण करना, (9) एक या अनेक सागारिकों से ग्रहण करना आदि विषयों पर चिन्तन किया गया है। सागारिक के सागारिक, शय्यातर, दाता, घर तर ये पांच प्रकार हैं। शय्या और संस्तारक का अन्तर बताते हुए कहा है कि शय्या पूरे शरीर के बराबर होती है और संस्तारक ढाई हाथ लम्बा होता है। उसके भी भेद-प्रभेद का विस्तार से वर्णन है। उपधि का विवेचन करते हुए उसके अवधियुक्त और उपगहीत ये दो प्रकार बताये हैं। जिनकल्पिकों के लिए बारह प्रकार की, स्थविरकल्पिकों के लिए चौदह प्रकार की और साध्वियों के लिए पच्चीस प्रकार की उपधि अवधियुक्त है। जिनकल्पिक पाणिपात्र भोजी और प्रतिग्रहधारी ये दो प्रकार के होते हैं। जिनकल्पिक की अवधि की आठ कोटियां हैं। उनके दो, तीन, चार, पांच, नौ, दस, ग्यारह, बारह ये भेद हैं। निर्वस्त्र पाणिपात्र की जघन्य ( 67 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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