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________________ 440] [निशीयसूत्र दो मास प्रायश्चित्त को प्रस्थापिता आरोपणा एवं वृद्धि 25. सवीसइराइयं दोमासियं परिहारट्ठाणं पटुविए अणगारे अंतरा वोमासियं परिहारद्वाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा-अहावरा वीसइराइया आरोवणा आदिमजमावसाणे सअर्से सहेउं सकारणं अहीणमहरित्तं तेण परं सदसराया तिण्णिमासा / 26. सदसराइय-तेमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा-अहावरा वीसइराइया ओरोवणा, आदिमज्झावसाणे सअळं सहेउं सकारणं अहीणमहरित तेण परं चत्तारि मासा / 27. चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पटुविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा-अहावरा बोसइराइया आरोवणा आविमज्यावसाणे सअढें सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं तेण परं सवीसइराइया चत्तारि मासा / 28. सवीसइराइय-चाउम्मासियं परिहारहाणं पट्टवीए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा- अहावरा वीसइराइया आरोवणा आदिमज्झायसाणे सअळं सहेउं सकारणं अहोणमारित्तं तेण परं सदसराया पंचमासा। 29. सदसराइय-पंचमासियं परिहारट्ठाणं पदविए अणगारे अंतरा दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा-अहावरा वीसइराइया आरोवणा आदिमज्यावसाणे सअळं सहेउं सकारणं अहोणमइरित्तं तेण परं छमासा। 25. दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणमार यदि प्रायश्चित्त ल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन, हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बोस रात्रि की प्रारोपणा का प्रायश्चित्त पाता है। जिसे संयुक्त करने पर तीन मास और दस रात्रि की प्रस्थापना होती है। 26. तीन मास और दस रात्रि का प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन, हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस रात्रि की प्रारोपणा का प्रायश्चित्त आता है। जिसे संयुक्त करने पर चार मास की प्रस्थापना होती है। 27. चातुर्मासिक प्रायश्चित्त वहन करने वाला अणगार यदि प्रायश्चित्त वहन काल के प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में प्रयोजन हेतु या कारण से दो मास प्रायश्चित्त योग्य दोष का सेवन करके आलोचना करे तो उसे न कम न अधिक बीस रात्रि की प्रारोपणा का प्रायश्चित्त पाता है। जिसे संयुक्त करने से चार मास और बीस रात्रि की प्रस्थापना होती है। 28. चार मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त वहन करने वाला प्रणगार यदि प्रायश्चित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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