________________ सत्रहवाँ उद्देशक] [389 139. जो भिक्षु-१. शंख के शब्द, 2. बांस के शब्द, 3. वेणु के शब्द, 4. खरमुहि के शब्द, 5. परिलिस के शब्द, 6. वेवा के शब्द या अन्य भी ऐसे झुसिरवाद्यों के शब्द सुनने के संकल्प से जाता है या जाने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-बारहवें उद्देशक में रूपों की आसक्ति के प्रायश्चित्तों का कथन है और यहाँ शब्दों की प्रासक्ति का प्रायश्चित्त कहा गया है। प्रस्तुत सूत्रचतुष्क में चार प्रकार के वाद्यों का नामोल्लेख है। प्राचा० श्रु० 2, अ० 11 में शब्दासक्ति-निषेध सूत्रों में भी यह सूत्र-चतुष्क है किन्तु वहाँ वाद्यों के नाम कम हैं और यहाँ अधिक हैं। निशीथणि में बहुत कम शब्दों की व्याख्या की गई है, शेष शब्द 'लोकप्रसिद्ध हैं' ऐसा कह दिया गया है / इनका विस्तृत विवेचन आचारांगसूत्र के विवेचन में देखें। संक्षेप में वितत–बिना तार वाले या चर्मावृत वाद्य-तबला, ढोलक आदि / तत-तार वाले वाद्य-वीणा आदि / घन-परस्पर टकरा कर बजाये जाने वाले वाद्य-जलतरंग आदि / झुसिर-मध्य में पोलर (छिद्र) वाले वाद्य-बांसुरी आदि / 'इन वाद्यों की आवाज यदि बिना चाहे ही कानों में पड़ जाय तो भिक्षु को उसमें रागभाव नहीं करना चाहिये' यह पांचवें महावत की प्रथम भावना है / अत: उन्हें सुनने के संकल्प से जाना तो सर्वथा अकल्पनीय ही है। इस विषय का विस्तत वर्णन १२वें उद्देशक के इन्द्रियविजय संबंधी विवेचन से जानना चाहिए। रोगनिवारणार्थ भंभा (भेरी) आदि वाद्यों की आवाज सुनने का प्रायश्चित्त नहीं आता है / ऐसे ही अन्य कारण भी समझ लेने चाहिये / विभिन्न स्थानों के शब्द-श्रवण एवं प्रासक्ति का प्रायश्चित्त 140-154. जे भिक्खू वप्पाणि वा जाव भवणगिहाणि वा कण्णसोयडियाए अभिसंधारेइ अभिसंधारेंतं वा साइज्जइ / एवं बारसमुद्देसग गमेणं सम्वे सुत्ता सद्दालावगेणं भाणियन्वा जाव जे भिक्खू बहुसगडाणि वा जाव अण्णयराणि वा विरूवरूवाणि महासवाणि कण्णसोयवडियाए अभिसंधारेइ, अभिसंधारेतं वा साइज्जइ / 155. जे भिक्खू 1. इहलोइएसु वा सद्देसु, 2. परलोइएसु वा सद्देसु, 3. दिठेसु वा सद्देसु, 4. अदिठेसु वा सद्देसु, 5. सुएसु वा सहेसु, 6. असुएसु वा सद्देसु. 7. विग्णाएसु वा सद्देसु, 8. अविण्णाएसु वा सद्देसु सज्जइ, रज्जइ, गिज्झइ, अज्झोक्वज्जइ, सज्जमाणं, रज्जमाणं, गिज्जमाणं, अज्झोववज्झमाणं साइज्जजइ। तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org