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________________ 384] [निशीथसूत्र गया हो / क्योंकि अन्य आगम में यह शब्द नहीं है एवं इस सूत्र की चूर्णि में भी इसकी व्याख्या नहीं है। दोनों शब्दों का पृथक् अस्तित्व स्वीकार करने पर सौवीर का अर्थ कांजी का पानी और अम्बकंजियं का अर्थ छाछ का आछ प्रादि ऐसा किया जाता है। प्रागमपाठ के विषयों का विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि 'सौवीर' का टीका एवं कोष आदि में किया गया अर्थ प्रसंग संगत नहीं है। क्योंकि सूत्र में कहे गए अचित्त जल तृषा शान्त करने के पेय जल हैं और इन्हें तेले तक तपस्या में पीने का विधान है / जबकि कांजी का पानी तो स्वादिष्ट बनाया गया पेय पदार्थ है जो प्रायम्बिल में भी पीना नहीं कल्पता है / उसे उपवास, बेला एवं तेला की तपस्या में पीना तो सर्वथा अनुचित होता है। .. आंवला, इमली ग्रादि खट्टे पदार्थों के धोवण-पानी का भी उल्लेख आचा. श्रु. 2, अ. 1, उ.८ में पृथक् किया गया है, अत: यहाँ एक सौवीर शब्द मानकर उसका छाछ की प्राछ अर्थ मानना प्रसंग संगत है। अथवा दोनों शब्द स्वीकार करके 'सौवीर' शब्द लोहे प्रादि गर्म पदार्थों को जिस पानी में डुबा कर ठण्डा किया गया हो, वह पानी एवं 'अम्लकांजिक' शब्द से छाछ के ऊपर का नितरा हुआ आछ ऐसा अर्थ करने पर भी सूत्रगत दोनों शब्दों की संगति हो सकती है। फलों का धोया हुआ पानी भी अचित्त तो हो सकता है, क्योंकि पानी में कुछ देर रहने या धोने पर कुछ फलों का रस तथा उन पर लगे अन्य पदार्थों का स्पर्श पानी को अचित्त कर देता है / किन्तु फलों की गुठलियाँ, बीज या उनके बीटके जल में होने से प्राचा० श्रु० 2, अ० 1, उ०८ में ऐसा पानी अकल्पनीय कहा गया है। फिर भी कभी बीज आदि से रहित अचित्त पानी उपलब्ध हो तो ग्रहण किया जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में 'शुद्धोदक' शब्द का भ्रांति से गर्म पानी अर्थ भी किया जाता है, किन्तु गर्म पानी के लिये आगमों में उष्णोदक शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ तत्काल के धोवण (अचित्त जल) का विषय है तथा प्राचा० श्रु० 2, अ० 1, उ०७ में भी ऐसे ही धोवण-पानी के वर्णन में शुद्धोदक (शुद्ध प्रचित्त जल) का कथन है। अन्न के अंश से रहित तथा अनेक अमनोज्ञ रसों वाले धोवण-पानी के अतिरिक्त अचित्त बने या बनाये गये शीतल जल को शुद्धोदक समझना चाहिए। इसमें लौंग, काली-मिर्च, त्रिफला, राख आदि मिलाये हुए पानी का समावेश हो जाता है। किन्तु शुद्धोदक का गर्म पानी अर्थ करना अनुचित ही है। क्योंकि उसका सूत्रोक्त प्रायश्चित्त से कोई सम्बन्ध नहीं है। आचा० श्रु० 2, अ० 1, उ० 7 में अचित्त पानी भिक्षु को स्वयं ग्रहण करने का भी कहा है / इसका कारण यह है कि भिक्षु के लिये निर्दोष अचित्त पानी मिलना कुछ कठिन है तथा पानी के बिना निर्वाह होना भी कठिन है। अतः अचित्त निर्दोष पानी उपलब्ध हो जाने पर कभी पानी देने वाला वजन उठाने में असमर्थ हो या पानी देने वाली बहन गर्भवती हो अथवा उनके पाने के मार्ग में सचित्त पदार्थ पड़े हों या उनके आने से जीव-विराधना होने की सम्भावना हो इत्यादि कारणों से भिक्षु गृहस्थ के आज्ञा देने पर या स्वयं उससे अाज्ञा प्राप्त करके अचित्त जल ग्रहण कर सकता है। यदि पानी का , परिमाण अधिक हो, बर्तन उठाकर नहीं लिया जा सकता हो तो भिक्षु स्वयं के पात्र से या गृहस्थ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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