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________________ 378] [निशोथसूत्र 127. जो भिक्षु मिट्टी से उपलिप्त बर्तन में रहे अशन, पान, खादिम या स्वादिम को लेप तोड़ कर दिये जाने पर ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन–मट्टिोलित्तं से यहाँ उद्गम का "उभिन्न" दोष ग्रहण किया गया है। इसका निषेध आचा. श्रु. 2, अ. 1. उ. 7 तथा दशव. अ. 5, उ. 1 में भी है। उन दोनों स्थलों के वर्णन से सभी प्रकार के ढक्कन द्वारा बंद किये हुए बर्तनों में से ढक्कन खोल कर दिया जाने वाला आहार साधु के लिये अकल्पनीय होता है / इसमें भारी पदार्थ या बर्तन तथा मिट्टी एवं वनस्पति पत्र आदि से बनाया हुआ ढक्कन (छांदा) एवं लोहे प्रादि से पैक किए हुए ढक्कनों का भी समावेश हो जाता है / सभी प्रकार के ढक्कनों के समाविष्ट होने के कारण ही उनके खोलने पर त्रस-स्थावर जीवों की विराधना होने का कथन है। केवल मिट्टी से लिप्त में अग्नि आदि सभी त्रस-स्थावर जीवों की विराधना सम्भव नहीं है। अत: “मट्टिसोलित्तं' शब्द होते हुए भी उपलक्षण से अनेक प्रकार के ढक्कन या लेप आदि से बन्द किए आहार का निषेध और प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिए। साधु को देने के बाद कई ढक्कनों को पुन: लगाने में भी प्रारम्भ होता है, जिससे पश्चात्कर्म दोष लगता है / अतः ऐसा आहार आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। भारी पदार्थ से ढके पाहार को देने में दाता को वजन उठाने-रखने में कष्ट का अनुभव हो तथा जिसे रखने आदि में जीव-विराधना सम्भव हो, ऐसा भारी प्रावरण समझना चाहिए। यदि सामान्य ढक्कनों को खोलने, बन्द करने में कोई विराधना न हो तथा जो सहज ही खोले या बन्द किए जा सकते हों, उनको खोलकर दिया जाने वाला आहार ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त नहीं पाता है। निक्षिप्त-दोषयुक्त आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त 128. जे भिक्खू असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पुढवि-पइट्ठियं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जह / 129. जे भिक्खू असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा आउ-पइट्ठियं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 130. जे भिक्खू असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा तेउ-पइट्टियं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 131. जे भिक्खू असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा वणप्फइ-पइट्टियं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 128. जो भिक्षु सचित्त पृथ्वी पर स्थित अशन, पान, खादिम या स्वादिम आहार को लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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