________________ 360] [निशीयसूत्र इन प्रमाणों के आधार से यह स्पष्ट होता है कि मुहपत्ति मुख पर बांधना ही मुनि-चिह्न एवं जीवरक्षा के लिए उपयुक्त है / अन्यथा प्रायः सभी साधु-साध्वियों का खुले मुह बोलना निश्चित है तथा इधर-उधर रख देने से मुनि-चिह्न भी नहीं रहता है। ग्रामादि में चलते समय या विहार आदि में मुखवस्त्रिका मुख पर न रहे तो जिनकल्पी आदि के लिए भाष्यादि में इसे मुनि-चिह्न की अपेक्षा आवश्यक उपकरण कहना निरर्थक हो जाता है / / भगवतीसूत्र श. 9, उ. 32 में आठ पट की मुहपत्ति का उल्लेख है / समुत्थान सूत्र में भी पाठ पट होने का उल्लेख है / श्वे. मूर्तिपूजक समाज में चार पट की मुहपत्ति रखी जाती है किन्तु एक किनारे आठ पट भी कर दिए जाते हैं / उसे सदा हाथ में रखते हैं / विहार आदि के समय चोलपट्टक में भी लटका देते हैं / श्वे. स्थानक वासी मुनि पूर्ण रूप से पाठ पट करके मुखवस्त्रिका मुख पर बाँध कर रखते हैं। शिवपुराण अध्याय 21 में जैन साधु का परिचय देते हुए मुख पर मुखवस्त्रिका धारण करने का कहा है / यथा हस्ते पात्रं दधानाश्च, तुडे वस्त्रस्य धारकाः। मलिनान्येव वासांसि, धारयंत्यल्पभाषिणः॥ निशीथभाष्य तथा पिंडनियुक्ति में कहा हैबितियं पि यप्पमाणं, मुहप्पमाणेण कायब्वं // 5805 / / -राजेन्द्र कोष भा. 6, पृ. 333 मुखवस्त्रिका मुख पर बाँधने से ही मुख प्रमाण बनाने का यह कथन सार्थक हो सकता है। मुखवस्त्रिका की संख्या भी पागम में नहीं कही गई है / अतः दो या अधिक आवश्यकतानुसार रखी जा सकती है / व्याख्या ग्रन्थों में एक-एक मुखवस्त्रिका रखना कहा है। कम्बल-आगमों में अनेक जगह कम्बल का नाम आता है। यह शीत से शरीर की रक्षा के लिए रखा जाता है / प्रश्नव्याकरणसूत्र में जहाँ तीन चद्दर का कथन है, वहाँ अन्य उपधि में कम्बल का नाम नहीं है, इसलिए इसका समावेश तीन चद्दरों में किया जाता है / जो भिक्षु शीत-परीषह सहन कर सकता है वह वस्त्र का ऊणोदरी तप करता हुआ एक सूती चद्दर से भी निर्वाह कर सकता है तथा अचेल भी रह सकता है। __ अथवा वस्त्र की जाति की अपेक्षा ऊणोदरी तप करता हुआ भिक्षु केवल सूती वस्त्र रखने पर कम्बल का त्याग कर सकता है। कम्बल को जीवरक्षा का साधन भी माना जाने लगा है जो परम्परा मात्र है, किन्तु प्रागमसम्मत नहीं है / दशा द. 7 में पडिमाधारी भिक्षु का सूर्योदय से सूर्यास्त तक विहार करने का वर्णन है / जहाँ सूर्यास्त हो जाए वहीं रात्रि भर अप्रमत्त भाव से व्यतीत करने का कथन है / / बृहत्कल्प उ. 2 में साधु को खुले आकाश वाले स्थान में रहना कल्पनीय कहा है, साध्वी को अकल्पनीय कहा है / किन्तु वहाँ अप्काय की विराधना होना या कम्बल ओढ़कर रहना नहीं कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org