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________________ 354] [निशोयसूत्र पदार्थ न लगे हों तो अच्छी तरह देखकर उसका उपयोग भिक्षु कर सकते हैं। ऐसा करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है / स्वेच्छा से खाद्य पदार्थ पृथ्वी पर रखना अनुचित प्रवृत्ति है। सूत्र में ऐसी प्रवृत्ति का ही प्रायश्चित्त कहा गया है। गृहस्थों के सामने आहार करने का प्रायश्चित्त 36. जे भिक्खू अण्णउत्थिहि वा गारथिएहि वा सद्धि भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / ___37. जे भिक्खू अण्णउत्थिएहि वा गारथिएहि वा सद्धि आवेढिय-परिवेढिय भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ। 36. जो भिक्षु अन्यतीथिकों या गृहस्थों के साथ [समीप बैठकर] पाहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। 37. जो भिक्षु अन्यतीथिकों या गृहस्थों से घिरकर [कुछ दूर बैठे या खड़े हों, वहाँ] अाहार करता है या पाहार करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासो प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-पन्द्रहवें उद्देशक में गृहस्थ को आहारादि देने का प्रायश्चित्त कहा गया है। अब यहाँ "सद्धि" पद से समीप में बैठकर खाना यह अर्थ करना प्रसंगसंगत है। क्योंकि साथ में अर्थात् एक पात्र में खाने पर तो अनेक दोषों की सम्भावना रहती है / यदि गृहस्थ का लाया हुआ पाहार है तो प्राधाकर्म आदि दोषयुक्त हो सकता है। यदि साधु का लाया हुअा आहार है तो देने में अदत्तदोष लगता है और ये दोष तो गुरुचौमासी प्रायश्चित्त के योग्य हैं, जबकि प्रस्तुत सूत्र में लघुचौमासी प्रायश्चित्त का कथन है / अतः प्रथम सूत्र से गृहस्थ और भिक्षु का समीप में बैठकर अाहार करने का प्रायश्चित्त समझना चाहिए। गृहस्थ भोजन नहीं कर रहे हों, किन्तु दूर एक दिशा में या चारों तरफ खड़े या बैठे हों तब भिक्षु उनके सामने आहार करे तो उसका दूसरे सूत्र में प्रायश्चित्त कहा है। गृहस्थ के निकट बैठकर खाने में गृहस्थ के द्वारा निमन्त्रण करना, देना आदि प्रवृत्ति होने की सम्भावना रहती है, देखने वालों को शंका हो सकती है / कभी कोई गृहस्थ जबर्दस्ती भी पात्र में आहार डाल सकता है या छीन सकता है। सामने जो गृहस्थ बैठे या खड़े हों, उनमें कोई कुतूहलवृत्ति वाले या द्वेषी भी हो सकते हैं / वे आहार को या आहार करते हुए भिक्षु को देखकर अनेक प्रकार से अवहेलना आदि कर सकते हैं। भिक्षु के आहार करने की विधि भी गृहस्थ से भिन्न होती है। यथा--पात्र पोंछकर साफकर के खाना या धोकर पीना आदि / अतः चारों ओर की दीवारों वाले एवं छत वाले एकान्त स्थान में आहार करना चाहिए। पाहार करते समय भी कदाचित् कोई गृहस्थ वहाँ आ जाये और बैठ जाए तो भिक्षु को "एकासन" तप में भी अन्यत्र जाना कल्पता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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