________________ [349 सोलहवाँ उद्देशक] 16. जो भिक्षु कदाग्रही भाव से अलग विचरने वाले [कदाग्रही] भिक्षुओं को प्रशन, पान; खाद्य या स्वाद्य देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 17. जो भिक्षु कदाग्रही भिक्षुओं से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। 18. जो भिक्षु कदाग्रही भिक्षुओं को वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 19. जो भिक्षु कदाग्रही भिक्षुत्रों से वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। 20. जो भिक्षु कदाग्रही भिक्षुओं को उपाश्रय देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 21. जो भिक्ष कदाग्रही भिक्षुत्रों से उपाश्रय लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है / 22. जो भिक्षु कदाग्रही भिक्षुत्रों के उपाश्रय में प्रवेश करता है या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है। 23. जो भिक्षु कदाग्रही भिक्षुत्रों को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 24. जो भिक्षु कदाग्रही भिक्षुओं से वाचना लेता है या लेने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन--"ग्गही कलहो, तं काउं अवक्कमति / " धुग्गहो त्ति कलहो ति, भंडणं ति, विवादो त्ति एगळं // --चूणि / / जो दुराग्रही भिक्षु सूत्र से विपरीत कथन या विपरीत आचरण करके कलह करते हैं या गच्छ का परित्याग कर स्वच्छन्द विचरते हैं, उनके लिये सूत्र में "वग्गहवक्कंताणं" शब्द का प्रयोग किया गया है / यहाँ ऐसे साधुओं की संगति करने का, उनसे सम्पर्क करने का या उनके साथ आदानप्रदान आदि व्यवहार करने का प्रायश्चित्त कहा गया है। __ क्योंकि विरोधभाव रहने से आहार, पानी, वस्त्रादि के देने-लेने में वशीकरण का प्रयोग या विष का प्रयोग किया जा सकता है / कदाचित् 'काकतालीय न्याय' के अनुसार कोई घटना घट जाए तो एक दूसरे पर आशंका या आरोप लगाने का प्रसंग उत्पन्न हो जाता है। कदाग्रही के साथ ठहरने से अनावश्यक विवाद या कषायवृद्धि हो सकती है। अल्पज्ञ या अपरिपक्व साधु भ्रमित होकर गण या संयम का भी त्याग कर सकते हैं / अथवा कदाग्रही के साथ ही रह सकते हैं। वाचना देने-लेने में भी संसर्गज दोष आदि अनेक दोषों की उत्पत्ति या वृद्धि होने की सम्भावना रहती है / अतः उत्सूत्र प्ररूपक कदाग्रही साधुओं से किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रखना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org