________________ सोलहवां उद्देशक [343 अतः भिक्षु द्रव्य एवं भाव सागारिक शय्या का परित्याग करके शुद्ध शय्या की गवेषणा करे / यदि गवेषणा करने पर भी निर्दोष शय्या न मिले तो गीतार्थ की निश्रा में विवेकपूर्वक रहे और सूत्रोक्त प्रायश्चित्त ग्रहण करे। . सउदगं सेज्जं-जहां पर खुले होज में या घड़े आदि में पानी रहता हो वहां ठहरने पर भिक्षु के गमनागमन आदि क्रियाओं से अप्कायिक जीवों की विराधना हो सकती है। उदय भाव से किसी भिक्षु को उस जल के पीने का संकल्प भी हो सकता है अथवा अन्य लोगों को साधु के जल पीने की आशंका हो सकती है / बृहत्कल्प सूत्र उ. 2 में जहां सम्पूर्ण दिन-रात अचित्त जल के घड़े भरे रहते हों वहां ठहरने का निषेध है और यहां सामान्य रूप से जल पड़ा रहने वाले स्थान में ठहरने का प्रायश्चित्त कहा है। सागणिय सेज्जं-बृहत्कल्प सूत्र में अग्नि वाली शय्या में ठहरने के दो विकल्प कहे गए हैं१. चूल्हे भट्टी आदि में जलने वाली अग्नि, 2. प्रज्वलित दीपक की अग्नि / जिस घर में या घर के एक कक्ष में अग्नि जल रही हो या दीपक जलता हो तो वहां भिक्षु न ठहरे क्योंकि वह वहां गमनागमन करेगा या वन्दन, प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि संय माचारी के कार्य करेगा तो अग्निकाय की विराधना होने की सम्भावना रहेगी। शीत निवारण के लिये अग्नि का उपयोग करने पर हिंसा के अनुमोदन का दोष लगेगा / व्याख्याग्रन्थों में जितने दोषों की कल्पना की गई है, वे प्रायः खुली अग्नि या खुले दीपक से हो सम्बन्धित हैं। वर्तमान में उपलब्ध विद्युत् संचालित दीपक आदि में उन दोषों की सम्भावना नहीं है, फिर भी प्रकाश के उपयोग से सम्बन्धित दोष तो सम्भवित है ही। जहां अग्नि या दीपक दिन-रात जलते हों ऐसे स्थान में ठहरने का बृहत्कल्प सूत्र में निषेध है किन्तु यहाँ सामान्यरूप से प्रज्वलित अग्नि वाली शय्या में ठहरने का प्रायश्चित्त कहा गया है / प्राचा. श्रु. 2, अ. 2, उ. 3 के ही सूत्र में एक साथ सागारिक शय्या, अग्नि वाली शय्या और जल वाली शय्या में ठहरने का निषेध है। वृहत्कल्प सूत्र उद्देशक 2 में अन्य स्थान न मिलने पर भिक्षु को जल या अग्नि युक्त स्थान में एक-दो रात ठहरने का आपवादिक विधान है। निशीथभाष्यचूणि में यह भी कहा गया है कि अगीतार्थ साधु को ऐसे स्थान में 1-2 रात्रि ठहरने पर भी प्रायश्चित्त आता है, गीतार्थ साधु को प्रायश्चित्त नहीं पाता है / क्योंकि वह आपवादिक स्थिति के विवेक का यथार्थ निर्णय ले सकता है। वास्तव में गीतार्थ का विहार करना और गीतार्थ की निश्रा में विहार करना ही कल्पनीय विहार है / एक या अनेक गीतार्थों के विचरण का तथा भिक्षाचरी आदि सभी कार्यों का निषेध ही है / अतः अन्य मकान के सुलभ न होने पर पूर्वोक्त शय्याओं में भिक्षु 1-2 रात्रि ठहर सकता है, अधिक ठहने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त समझना चाहिए। अनेक उपाश्रयों के व्यवस्थापक सुविधा के लिए बिजली की फिटिंग करवाते हैं। आवश्यक कार्य होने पर लाइट का उपयोग करते करवाते हैं / उसी उपाश्रय में सन्त-सतियां भी ठहरते हैं। वहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org