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________________ 316] [निशीथसूत्र दोनों सूत्रों में जो प्रायश्चित्त विधान है वह गण-प्रमुख के लिए है / उन्हें ही यह निर्णय करना होता है कि कौनसे साधु या साध्वी अतिरिक्त पात्र देने के योग्य हैं और कौन अयोग्य हैं / अयोग्य पात्र रखने का तथा योग्य पात्र परठने का प्रायश्चित्त 8. जे भिक्खू पडिग्गहं अणलं, अथिर, अधुवं, अधारणिज्जं धरेइ, धरेतं वा साइज्जइ / 9. जे भिक्खू पडिग्गहं अलं, थिरं, धुवं, धारणिज्जं न धरेइ, न धरतं वा साइज्जइ / 8. जो भिक्षु काम के अयोग्य, अस्थिर, अध्र व और धारण करने के अयोग्य पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है / 9. जो भिक्षु काम के योग्य, स्थिर, ध्रव और धारण करने योग्य पात्र को धारण नहीं करता है या धारण नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राता है।) विवेचन–पात्र आदि सभी प्रकार के उपकरण जब तक उपयोग में आने योग्य रहें तब तक उपयोग में लेने चाहिए। उन्हें परठ देना या गृहस्थ के पास छोड़ देना उचित नहीं है। पात्र उपयोग में लेते-लेते खराब भी हो सकता है, कभी फूट भी सकता है तो भी उपयोग में आने योग्य रहे तब तक उसे परठना या छोड़ना नहीं चाहिए। यदि पात्र उपयोग में आने योग्य नहीं हो, प्रतिलेखन या जीवरक्षा पूर्णतया नहीं हो सकती हो अथवा थेगली या बन्धन, तीन से अधिक हो गये हों तो उस पात्र को रखना नहीं कल्पता है / उपयोग में न आने योग्य पात्र को रखने में उस पात्र के प्रति ममत्वभाव हो सकता है, यथा'यह मेरी दीक्षा का पात्र है' इत्यादि / किन्तु भिक्षु को ममत्व न करके उसे त्याग देना चाहिए / इन दो सूत्रों में उपयोग में आने योग्य पात्र को त्याग देने का तथा अनुपयोगी पात्र को रखने का लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है। बन्धन या थेगलियाँ अधिक लगाने एवं रखने का प्रायश्चित्त प्रथम उद्देशक में कहा गया है। सूत्र में प्रयुक्त 'अणलं' आदि शब्दों का विवेचन पाँचवें उद्देशक में देखें। पात्र का वर्ण परिवर्तन करने का प्रायश्चित्त-- 10. जे भिक्खू वण्णमंतं पडिग्गहं विवणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ / 11. जे भिक्खू विवण्णं पडिग्गहं वण्णमंतं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ / 10. जो भिक्षु अच्छे वर्ण वाले पात्र को विवर्ण करता है या विवर्ण करने वाले का अनुमोदन करता है। 11. जो भिक्षु विवर्ण पात्र को अच्छे वर्ण वाला करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त अाता है / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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