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________________ [311 चौदहवां उद्देशक पहले, दूसरे और तीसरे सूत्र में क्रीतादि तीन उद्गम दोषों का क्रमशः प्रायश्चित्त कथन है। चौथे सूत्र में शेष तीन उद्गम दोषों का एक साथ प्रायश्चित्त कथन है।। साधु स्वयं पात्रविक्रेता से पात्र खरीदे और पात्र का मूल्य किसी अनुरागी गृहस्थ से पात्रविक्रेता को दिलावे, यह साधु का पात्र खरीदना है / किसी अनुरागी गृहस्थ को पात्र खरीदकर लाने के लिए साधु द्वारा कहना, यह साधु का पात्र खरीदवाना है। इसी प्रकार साधु द्वारा उधार लेना, लिवाना और परिवर्तन करना, करवाना भी समझ लेना चाहिए। ये तीनों दोष परिग्रह महाव्रत के अतिचार रूप हैं / शेष तीन दोष गृहस्थ द्वारा लगाए जाने का प्रायश्चित्त कहा गया है। क्योंकि वे दोष साधु द्वारा लगाए जाना सम्भव नहीं है / अथवा कदाचित् कोई ऐसी अमर्यादित प्रवृत्ति कर ले तो उसे प्रस्तुत सूत्रोक्त लघुचौमासी प्रायश्चित्त नहीं आता है किन्तु गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। आच्छिन्न दोष का सेवन प्रथम एवं तृतीय महाव्रत के अतिचार रूप है। अनिसृष्ट दोष का सेवन तीसरे महाव्रत का अतिचार रूप है। अभिहड दोष का सेवन प्रथम महावत का अतिचार रूप है। ये छहों दोष एषणासमिति के उद्गम दोष कहे गये हैं। 1. क्रोत-भिक्षु परिग्रह का पूर्ण त्यागी होता है अतः क्रय-विक्रय करना उसका आचार नहीं है / आवश्यक उपधि और भोजन वह भिक्षावृत्ति से ही प्राप्त करता है। उत्तरा अ. 35, गा. 13-15 में कहा है कि भिक्षु सोने-चांदी की मन से भी कामना न करे, पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखे और क्रय-विक्रय की प्रवृत्ति से विरत रहे। खरीदने वाला क्रेता (ग्राहक) होता है और बेचने वाला व्यापारी होता है। भिक्षु भी यदि क्रय-विक्रय के कार्य करे तो वह जिनाज्ञा का पाराधक नहीं होता है। अतः भिक्षाजीवी भिक्षु को भिक्षा से ही प्रत्येक वस्तु प्राप्त करना चाहिये, किन्तु खरीदना नहीं चाहिये / क्योंकि क्रय-विक्रय करना भिक्षु के लिये महादोष है और भिक्षावृत्ति महान् सुखकर है। -उत्तरा. अ. 35 गा. 13-15.. दशवै. अ. 3, गा. 3 में क्रीतदोष युक्त अर्थात् साधु के भाव से गृहस्थ द्वारा खरीदी हुई वस्तु ग्रहण करना भिक्षु के लिये अनाचार कहा गया है / दशवै. अ. 6, मा. 48 में कहा है कि "क्रीत आदि दोष युक्त आहारादि ग्रहण करने वाला भिक्षु उस पदार्थ के बनने में होने वाले पाप का अनुमोदनकर्ता होता है।" यह अनुमोदन का तीसरा प्रकार है / अनुमोदन के तीन प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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