________________ 288 [निशीयसूत्र विवेचन-शब्दों की व्याख्याथूणा-वेली-छोटा थम्बा / गिहेलुको- उम्बरो-देहली। असुकालं--उक्खलं-ऊखल / कामजलं-हाणपीढं स्नान की चौकी। सिलसि-लेलुसिये शब्द इन सूत्रों में दो बार आये हैं। पहले सचित्त रूप से और बाद में आकाशीय रूप से प्रयुक्त हुए हैं। कुलियंसि-मिट्टो की दीवार या पतली दीवार / भित्तिसि-ईंट, पत्थर आदि की दीवार अथवा नदी का तट / खधंसि-"खंधं पागारो पेढं वा"--कोट, पीठिका या स्तम्भगृह / फलिहंसि--लकड़ी का तखत, पाटिया अथवा खाई के ऊपर बना स्थल या अर्गला / मंचंसि—मंच, समभूमि से ऊंचा स्थान। मालंसि--"गिहोवरि मालो" दूसरा मंजिल आदि / पासायंसि-"णिज्जूह-गवक्खोवसोभितो पासादो" सुशोभित महल / हम्मतलंसि-"सव्वोवरि तलं'-शिखर स्थान अथवा छत / दुब्बद्धे- बांस आदि रस्सी से ठीक बंधे न हों। दुणिक्खित्ते---ठीक से स्थापित न हों। अणिकपे-चलाचले–“अनिष्प्रकंपित्वादेव चलाचलं चलाचलनस्वभावं" ठाणं-सेज-निसीहियं-चर्णिकार ने इन तीन शब्दों की व्याख्या प्रारम्भ में की है और बाद में चार शब्दों की व्याख्या भी की है। वहाँ तीसरा शब्द "णिसेज्ज" अधिक कहा है। किन्तु प्राचारांगसूत्र में तथा निशीथ उद्देशक पाँच में तीन शब्द ही हैं। अतः यहाँ भी मूल में तीन शब्द ही रखे हैं, जिसमें उन स्थानों पर की जाने वाली सभी प्रवृत्तियों का समावेश हो जाता है-१. कायोत्सर्ग करके खड़े रहना या बिना कायोत्सर्ग किए खड़े रहना / 2. किसी भी प्रासन से शयन करना। 3. स्वाध्याय करने के लिए या आहार करने के लिए बैठना / पूर्व सूत्रोक्त पाठ स्थानों में ये कार्य करने का निषेध पृथ्वी आदि की विराधना के कारण किया है और इन तीन सूत्रों में भिक्षु के गिरने की सम्भावना के कारण निषेध है। क्योंकि ये स्थान ऊँचे और अनावृत अर्थात् सभी दिशाओं में खुले आकाश वाले हैं / ये बिना सहारा के स्थान होने से साधु के गिर पड़ने की या उपकरण आदि के गिरने की सम्भावना रहती है, जिससे प्रात्मविराधना, उपकरणों का विनाश और जीव विराधना हो सकती है। अत: ऐसे स्थानों में खड़े रहना, सोना, बैठना आदि कार्य नहीं करना चाहिए। प्राचारांग श्रु. 2, अ. 2, उ. 1 में ऐसे स्थानों में भिक्षु के ठहरने का निषेध किया गया है / कदाचित् ऐसे स्थानों में ठहरना पड़े तो अत्यन्त सावधानी रखने का निर्देश किया है तथा असावधानी से होने वाली अनेक प्रकार की विराधनाओं का स्पष्टीकरण भी किया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org