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________________ 278] [निशीथसूत्र 33. जो भिक्षु दो कोश की मर्यादा से आगे अशन, पान, खाद्य या स्वाध ले जाता है या ले जाने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन-आहार ले जाने या लाने की उत्कृष्ट क्षेत्रमर्यादा का विधान उत्त. अ. 26 में किया गया है तथा बहत्कल्प उद्देशक 4 में प्रा 4 में अर्द्ध योजन से आगे हार ले जाने का निषेध किया गया है। यदि भूल से चला जाये तो उस आहार को खाने का निषेध किया है और खाने पर प्रायश्चित्त भी कहा है / प्रस्तुत सूत्र में केवल मर्यादा से आगे ले जाने का ही प्रायश्चित्त कहा है। दो कोश से आगे ले जाने से होने वाले दोष१. पानी की मात्रा अधिक ली जायेगी। 2. वजन अधिक हो जाने से श्रम अधिक होगा। 3. सीमा न रहने से संग्रहवृत्ति बढ़ेगी। 4. खाद्य पदार्थों की आसक्ति की वृद्धि होगी। 5. अन्य अनेक दोषों की परम्परा बढ़ेगी। अर्द्धयोजन को क्षेत्रमर्यादा आगमोक्त है, संग्रहवृत्ति से बचने के लिये यह मर्यादा कही गई है। यह सीमा उपाश्रयस्थल से चौतरफी की है अर्थात् भिक्षु अपने उपाश्रय से चारों दिशा में अर्द्ध योजन तक भिक्षा के लिये जा सकता है और विहार करने पर अपने उपाश्रय से आहार-पानो अर्द्ध योजन तक साथ में ले जा सकता है। यह क्षेत्रमर्यादा आत्मांगुल अर्थात् प्रमाणोपेत मनुष्य की अपेक्षा से हैएक योजन 4 कोस अर्द्ध योजन 2 कोस एक कोस 2000 धनुष दो कोस 43 माइल =7 किलोमीटर बृहत्कल्प उ. 3 में प्राधा कोस एक-एक दिशा में अधिक कहा गया है / वह स्थंडिल के लिये जाने की अपेक्षा से कहा गया है। एक दिशा में अढ़ाई कोस और दो दिशाओं को शामिल करने से पांच कोस का अवग्रह कहा गया है। इसलिए क्षेत्रसीमा-परिमाण का मुख्य केन्द्र भिक्षु का निवासस्थल-उपाश्रय माना गया है-- "सेसे सकोस मंडल, मूल निबंध अणुमुयंताणं / " ---बृ. भा. गा. 4845 अर्थ-किसी दिशा में पर्वत, नदी या समुद्र आदि की बाधा न हो तो अपने मूलस्थान को न छोड़ते हुए एक कोश और एक योजन की लम्बाई का मंडल रूप अवग्रह समझना चाहिए / अर्थात् चारों दिशाओं में जो मंडलाकार क्षेत्र बनता है उसका व्यास (लंबाई) एक कोश और एक योजन का होना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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