________________ 266] [निशीयसूत्र दाता के इस प्रकार दोष लगाने पर भी भिक्षु यदि आहार ग्रहण न करे तो उसे सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है / धोये हुए हाथ आदि से आहार ग्रहण करने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है। भद्रबाहुकृत नियुक्ति गाथा 4066 में कहा है कि यदि अन्य पुरुष अन्य आहार या उसी आहार को दे तो ग्रहण किया जा सकता है। किन्तु पूर्वकर्म हाथ वाले व्यक्ति से हाथ सूख जाने पर भी ग्रहण करना नहीं कल्पता है, ऐसा भाष्य गाथा 4072 में कहा गया है / आव. अ. 4 में भिक्षाचारी-अतिचार-प्रतिक्रमण पाठ में भी पूर्वकर्मदोष का कथन है / * उदक-भाजन से पाहारग्रहरण-प्रायश्चित्त 15. जे भिक्खू गिहत्थाण वा अण्णउस्थियाण वा सोओदग परिभोगेण हत्थेण वा, मत्तेण वा, दविएण वा, भायणेण वा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 15. जो भिक्षु गृहस्थ या अन्यतीथिक के सचित्त जल से गीले हाथ, मिट्टी के बर्तन, कुड़छो या धातु के बर्तन से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन--पूर्व सूत्र में दाता भिक्षा देने के पूर्व हाथ, बर्तन आदि धोकर देवे तो उससे आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त कहा है और इस सूत्र में यह कहा गया है कि गृहस्थ सचित्त पानी से कोई भी कार्य कर रहा हो, जिससे उसके हाथ सचित्त जल से भरे हुए हों अथवा कोई बर्तन सचित्त पानी भरने या लेने के काम पा रहा हो तो ऐसे हाथों या बर्तनों से भिक्षा लेने से उन पर लगे पानी के जीवों की विराधना होती है तथा पुनः उस हाथ या बर्तनों को अन्य सचित्त जल में डालने पर भी अप्काय के जीवों की विराधना होतो है / ___ इस तरह इस सूत्र में हाथ आदि में रहे जल की विराधना और बाद में होने वाली विराधना रूप पश्चात्कर्मदोष का प्रायश्चित्त कहा गया है / व्याख्या में बताया गया है कि पानी लेने या पीने के बर्तन से भिक्षा लेने पर उस खाद्य पदार्थ का अंश बर्तन में रहता है जो पुनः पानी में डालने पर अप्कायिक जीवों की विराधना करता है। अतः सचित्त जल के काम आने वाले बर्तनों से आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये। __ ऐसे हाथ, बर्तन आदि से अचित्त उष्ण या शीतल जल ग्रहण करने पर हाथ बर्तन आदि में विद्यमान जल की विराधना होती है तथा बर्तनों में शेष रहे हुए अचित्त जल से अन्य सचित्त पानी की विराधना होती है। चतुर्थ उद्देशक में सचित्त पानी से गीले या स्निग्ध हाथ, बर्तन आदि से आहार ग्रहण करने का लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा गया है और यहाँ पश्चात्कर्मदोष की अपेक्षा से लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org