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________________ 262] [निशीथसूत्र विवेचन--सचित्त-वृक्ष तीन प्रकार के होते हैं-- 1. संख्यात जीव वाले ताड़ वृक्षादि, 2. असंख्यात जीव वाले आम्रवृक्षादि , 3. अनंत जीव वाले थूहरादि / संख्यात जीव वाले या असंख्यात जीव वाले वृक्ष पर चढ़ने का लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है और अनंत जीव वाले वृक्ष पर चढ़ने का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। पांचवें उद्देशक में सचित्त-वृक्ष के निकट खड़े रहने का भी प्रायश्चित्त कहा गया है। प्रतिवष्टि से बाढ़ आने पर, श्वापद या चोर के भय से या अन्य किसी परिस्थिति से भिक्षु को वृक्ष पर चढ़ना पड़े तो सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है, किन्तु अकारण चढ़े या बारम्बार चढ़ने का प्रसंग आए तो प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। वृक्ष पर चढ़ने से होने वाले दोष१. वनस्पतिकाय की विराधना होती है। 2. चढ़ते समय हाथ-पाँव आदि में खरोंच आ जाती है। 3. गिर पड़ने से अन्य जीवों की विराधना होती है। 4. हाथ-पाँव आदि में चोट आने से प्रात्मविराधना होती है / 5. वृक्ष पर चढ़ते हुए देखकर किसी के मन में अनेक आशंकायें उत्पन्न हो सकती हैं। 6. धर्म की अवहेलना होना भी संभव है। अनंतकायिक थूहर, पाक आदि वृक्षों पर चढ़ना संभव नहीं होता है, अतः उनका सहारा लेना आदि का प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिए। गृहस्थ के पात्र में प्राहार करने का प्रायश्चित्त 10. जे भिक्खू गिहि-मत्ते भंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / 10. जो भिक्षु गृहस्थ के पात्र में आहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-भिक्षु गृहस्थ के द्वारा अपने पात्र में आहारादि ग्रहण कर उसे खा सकता है किन्तु गृहस्थ के थाली-कटोरी आदि में नहीं खा सकता है तथा उनके गिलास लोटे प्रादि से पानी नहीं पी सकता है / यह मुनिजीवन का प्राचार है। दशवै. अ. 6 गा. 51-52-53 में इसका निषेध किया गया है, वह वर्णन इस प्रकार है "कांस्य मिट्टी आदि किसी भी प्रकार के गृहस्थ के बर्तन में अशन-पान आदि आहार करता हया भिक्षु अपने प्राचार से भ्रष्ट हो जाता है / भिक्षु के खाने या पीने के बाद गृहस्थ के द्वारा उन बर्तनों को धोये जाने पर अप्काय की विराधना होती है और उस पानी के फेंकने पर अनेक त्रस प्राणियों की भी हिंसा होती है, अत: इसमें जिनेश्वर देव ने असंयम कहा है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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