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________________ 250] [निशीथसूत्र चाहिये / कभी विशिष्ट प्रागार सेवन के पूर्व भी गीतार्थ की आज्ञा लेना आवश्यक होता है। अगीतार्थ [अबहुश्रुत और अपरिणामी या अतिपरिणामी भिक्षु आगार-सेवन और अपवाद-सेवन के निर्णय करने में अयोग्य होते हैं। आगार-सेवन या अपवाद-सेवन में क्षेत्र, काल या व्यक्ति का ध्यान रख कर विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करना भी आवश्यक होता है। विकट परिस्थिति में भी गीतार्थ के नेतृत्व में दृढ़ता पूर्वक प्रत्याख्यान का पालन किया जाय एवं आगारों का सेवन न किया जाय तो वह स्वयं के लिये तो महान् लाभ का कारण होता ही है, साथ ही उससे जिनशासन को भी प्रभावना होती है / ___ अतः भिक्षु को एक बार भी प्रत्याख्यान भंग न करते हुए दृढ़ता पूर्वक उसका पालन करना चाहिये। प्रत्येककाय-संयुक्त आहारकरण-प्रायश्चित्त-- ४-जे भिक्खू परित्तकाय-संजतं आहारं आहारेइ, आहारतं वा साइज्जइ / 4- जो भिक्षु प्रत्येककाय से मिश्रित पाहार खाता है या खाने वाले का अनुमोदन करता है। [ उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।] विवेचन-चतुर्थ उद्देशक में सचित्त धान्य और बीज खाने का लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा है / दशवें उद्देशक में फूलण आदि अनंतकाय से मिश्रित आहार करने का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है और प्रस्तुत सूत्र में प्रत्येककाय-संयुक्त आहार खाने का लघु-चौमासी प्रायश्चित्त कहा है। पूर्वोक्त सूत्रों का विवेचन उन-उन उद्देशकों में किया गया है, प्रत्येककाय-मिश्रित आहार ये हैं१. सचित्त नमक से युक्त आहार, जिसमें नमक शस्त्रपरिणत न हुआ हो। 2. सचित्त पानी युक्त छाछ या प्राम का रस आदि, ये जब तक शस्त्रपरिणत नहीं हुए हों। 3. अग्नि पर से उतार लेने के बाद व्यंजन में धनिया पत्ती आदि डाले गये हों। यहाँ असंख्य जीव युक्त पदार्थों का कथन है, क्योंकि धान्य व बीज रूप प्रत्येककाय के पदार्थों का कथन चौथे उद्देशक में हो चुका है / अतः सचित्त नमक, पानी और कुछ वनस्पतियों से युक्त खाद्य पदार्थ हों और उन सचित्त पदार्थों के शस्त्रपरिणत होने योग्य वह द्रव्य न हो या समय न बीता हो तो ऐसे खाद्य पदार्थ को प्रत्येककाय-संयुक्त आहार कहा गया है। ग्रहण करने के बाद ज्ञात होने पर ऐसा पाहार नहीं खाना चाहिये और खाने के बाद या कुछ खाने के बाद ज्ञात हो जाये तो शेष आहार को परठ कर उसका प्रायश्चित्त ले लेना चाहिये। चर्णिकार ने अनेक प्रकार के सचित्त पत्र, पुष्प, फल आदि से भी युक्त अशनादि का होना बताया है तथा कई चीजों में तत्काल नमक डाल कर गृहस्थों के खाने के रिवाज का कथन किया है। वैसे पदार्थ साधु के द्वारा खाने पर जीवविराधना होने से प्रथम महाव्रत दूषित होता है / ___ जानकर खाने पर या बिना जाने खाने पर अथवा प्रबल कारण से खाने पर प्रायश्चित्त भिन्न-भिन्न पाते हैं, इनका निर्णय गीतार्थ पर निर्भर होता है, उनकी एक प्रायश्चित्त-तालिका प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में दी गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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