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________________ 244] [निशीथसूत्र भिगु---णदीतडी / आदि सद्दातो विज्जुक्खायं, अगडो वा भण्णइ। पडण-पक्खंदण-ठिय-णिसन्न-णिवण्णस्स अणुप्प इत्ता पवडमाणस्स "पवडणं"। उप्पइत्ता जो पडइ "पक्खंदणं" / रुक्खाओ या समपादठितस्स अणुप्पइत्ता पवडमाणस्स पवडणं / रुक्खंट्टियस्स जं उष्पइत्ता पडणं तं "पक्खंदणं"। वलयमरण-गलं वा अप्पणो वलेइ / तब्भवमरण-जम्मि भवे वदृइ तस्स भवस्स हेउसु वट्टमाणे। आउयं बंधित्ता पुणो तत्थ उवज्जिउकामस्स जं मरणं तं तब्भवमरणं / वसट्टमरण इंदियविसएसु रागदोसवसट्टो मरंतो "वसट्टमरणं" मरइ / आत्मघात रूप बालमरणों का कथन होने से वशार्तमरण का प्राशय इस प्रकार जानना उपयुक्त है कि विरह या वियोग से दुःखी होकर छाती या मस्तक में आघात लगाकर मरना। अथवा किसी इच्छा-संकल्प के पूर्ण न होने पर उसके निमित्त से दुःखी होकर तड़फ-तड़फ कर मरना / गिद्धपुढमरणं-गिद्धेहिं पुढें-गिद्धपुठं, गर्भक्षितव्यमित्यर्थः / तं गोमाइकलेवरे अत्ताणं पक्खिवित्ता गिद्धेहि अप्पाणं भक्खावेइ / ____ अहवा पिट्ठ-उदर-आदिसु अलत्तपुडगे दाउं अप्पाणं गिद्धेहि भक्खावेइ / इन बालमरणों की प्रशंसा करने पर सुनने वाला कोई सोचे कि "अहो ये आत्मार्थी" साधु इन मरणों की प्रशंसा करते हैं तो ये वास्तव में करणीय हैं, इनमें कोई दोष नहीं है। संयम से खिन्न कोई साधु इस प्रकार सुनकर बालमरण स्वीकार कर सकता है। इत्यादि दोषोत्पत्ति के कारण होने से भिक्षु को इन मरणों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिये। जब इन मरणों को प्रशंसा करना ही अकल्पनीय है तो इन मरणों का संकल्प या इनमें प्रवृत्ति करने का निषेध तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। अतः मुमुक्षु साधक इन मरणों की कदापि चाहना न करे अपितु कारण उपस्थित होने पर समभाव, शान्ति की वृद्धि हेतु साधना करे एवं संलेखना स्वीकार कर भक्तप्रत्याख्यान, इंगिणीमरण या पादपोपगमनमरण रूप पंडितमरण को स्वीकार करे। ऐसा करने से संयम की शुद्ध आराधना हो सकती है। किन्तु दुःखों से घबराकर या तीव्र कषाय से प्रेरित होकर बालमरण स्वीकार करने से पुनः पुनः दुःखपरम्परा की ही वृद्धि होती है / शीलरक्षा हेतु कभी फांसी लगाकर मरण करना पड़े तो वह आत्मा के लिए अहितकर न होकर कल्याण का एवं सुख का हेतु होता है, ऐसा-याचा श्रु. 1, अ. 8, उ. 4 में कहा गया है / ग्यारहवें उद्देशक का सारांश सूत्र 1-2 लोहे आदि के पात्र बनाना व रखना सूत्र 3-4 लोहे आदि के बंधनयुक्त पात्र करना व रखना सूत्र 5 पात्र के लिये अर्द्धयोजन से आगे जाना सूत्र 6 कारणवश भी अर्द्धयोजन के आगे से सामने लाकर दिये जाने वाला पात्र लेना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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