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________________ 226] [निशीथसूत्र 1. 'मैंने ऐसा विस्मयकारक प्रयोग किया', इस हर्ष से उन्मत्त हो सकता है। 2. अन्य को विस्मित करने से वह विक्षिप्तचित्त हो सकता है। 3. उस विद्या आदि की कोई याचना कर सकता है / उसे देने पर सावद्य प्रवृत्ति होती है और नहीं देने पर वह विरोधी बनता है / 4. विद्या आदि के प्रयोग में प्रवृत्त होने से तप-संयम की हानि होती है। 5. असद्भूत प्रयोगों से विस्मित करने में माया-मृषावाद का सेवन होता है / अतः सद्भूत या असद्भूत दोनों प्रकार की विस्मयकारक प्रवृत्तियाँ करने पर प्रायश्चित्त आता है। विपर्यासकरण-प्रायश्चित्त ६७-जे भिक्खू अप्पाणं विपरियासेइ, विप्परियासंतं वा साइज्जइ। ६८--जे भिक्खू परं विप्परियासेइ, विप्परियासंतं वा साइज्जइ / 67-- जो भिक्षु स्वयं को विपरीत बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है / ६८-जो भिक्षु दूसरे को विपरीत बनाता है या विपरीत बनाने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन स्वयं की जो भी अवस्था है, यथा-स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, जवान, सरोग, नीरोग, सुरूप, कुरूप आदि, उनसे विपरीत अवस्था करना--यह स्वविपर्यासकरण है। इसी तरह अन्य की भी जो अवस्था हो उससे विपरीत बनाना यह परविपर्यासकरण है। ऐसा करने से गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है। ___सूत्र 63 से 68 तक इन छहों सूत्रों में कुतूहलवृत्ति और मायाचरण दोष के कारण प्रायश्चित्त का कथन है। सूत्र 67-68 में भाष्यकार ने विपर्यास करने की जगह विपर्यास कथन का अधिक विवेचन किया है। अन्यमतप्रशंसाकरण-प्रायश्चित्त ६९-जे भिक्खू मुहवण्णं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ / जो भिक्षु अन्य धर्म की प्रशंसा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है / ) विवेचन- जो जिस धर्म का भक्त हो उसके सामने उसके धर्म आदि की प्रशंसा करना मुखवर्ण है। वे प्रशंसा के स्थान ये हैं, यथा-- , 1. गंगा आदि कुतीर्थों की / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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