________________ दसवां उद्देशक] [213 37. जो भिक्षु पर्युषण के दिन से अन्य दिन में पर्युषण करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है)। विवेचन-चातुर्मास-वर्षावास चार महीने का होता है, यह पूर्व में स्पष्ट किया गया है / इन दो सूत्रों में पर्युषण सम्बन्धी कथन है / यह पर्युषण एक दिन का होता है, वह भी निश्चित है / इसलिये इन दो सूत्रों में उस दिन पर्युषण न करने का तथा अन्य दिन करने का प्रायश्चित्त कहा है। आगमों में इस दिन के सम्बन्ध में स्पष्ट कथन नहीं है, फिर भी इन दो सूत्रों में प्रायश्चित्तविधान करने से संवत्सरी के दिन का निश्चित निर्देश किया गया है। इन सूत्रों की व्याख्या करते हुए गाथा 3146 व गाथा 3153 की चूणि में भादवा सुदी पंचमी का कथन किया गया है तथा गाथा 3152-53 की व्याख्या में 1 मास 20 दिन का कथन भी किया है। ऐसा ही कथन ७०वें समवाय में भी है। अतः तात्पर्य यह है कि इस दिन को छोड़कर अन्य दिन पर्युषण करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है और उस दिन के लिए भादवा सुदी पंचमी तिथि निश्चित्त है। इस विषय में कहा जाता है कि शातवाहन राजा के आग्रह से कालकाचार्य ने चौथ की संवत्सरी की, तब से चौथ की संवत्सरी की जाती है। ___ कोई भी गीतार्थ या आगमविहारी मुनि परिस्थितिवश अपवादमार्ग के सेवन का निर्णय ले सकते हैं। आपवादिक स्थिति के समाप्त होने पर उसका यथोचित प्रायश्चित्त कर पुनः सूत्रोक्त आचरण स्वीकार कर लेते हैं। परिस्थितिवश सेवन किये गए अपवाद के लिए सूत्रविपरीत परम्परा चलाने का अधिकार किसी भी गीतार्थ या अागमविहारी को नहीं है। अतः प्रर्वधर कालकाचार्य के द्वारा किसी देश के राजा के आग्रह से चौथ की संवत्सरी करना कदाचित् सम्भव हो सकता है, किन्तु उनके द्वारा परम्परा चलाना या चलने देना उचित नहीं है / क्योंकि अपवाद आचरण को उत्सर्ग आचरण बनाना अपराध है / अतः उपर्युक्त कथन के अनुसार संवत्सरी के काल का परिवर्तन उचित नहीं कहा जा सकता। आगमोक्त निश्चित दिवस तो भादवा सुदी पंचमी का ही था और है / उससे भिन्न किसी भी दिन पर्युषण करने पर प्रायश्चित्त पाता है, यही इन दो सूत्रों का प्राशय समझना चाहिए / आज भी पंचांगों में ऋषिपंचमी, इसी दिन लिखी जाती है। 10-20 वर्षों के पचाङ्ग देखकर निर्णय किया जा सकता है / अपने-अपने मताग्रहों को त्याग कर पंचाङ्गों में लिखी ऋषिपंचमी के दिन पर्युषण (संवत्सरी) करने का निर्णय सम्पूर्ण जैन संघ स्वीकार कर ले तो आगम परम्परा और एकरूपता दोनों का निर्वाह सम्भव है। "ऋषिपंचमी" नाम भी इस अर्थ का सूचक है कि ऋषि-मुनियों का पर्वदिवस / इस "ऋषि" शब्द में जैन-जनेतर सभी साधुओं का समावेश हो जाता है। जैनागमों में भी साधु के लिए "ऋषि" शब्द का प्रयोग हुप्रा है। आज से सैकड़ों (1200-1300) वर्षों पूर्व गीतार्थ आचार्यों ने लौकिक पंचांग से ही सभी पर्वदिवस मनाने का निर्णय लिया था, यथा--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org