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________________ 186] [निशीवसूत्र 8. जो भिक्षु शुद्ध वंशज मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के आने-जाने के समय उन्हें देखने के संकल्प से एक कदम भी चलता है या चलने वाले का अनुमोदन करता है। ... 9. जो भिक्षु शुद्ध वंशज मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा की सर्व अलंकारों से विभूषित रानियों को देखने के संकल्प से एक कदम भी चलता है या चलने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-प्राचारांगसूत्र में अनेक दर्शनीय पदार्थों व स्थलों को देखने का निषेध किया गया है तथा निशीथसूत्र के १२वे उद्देशक में उनका लघचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है। राजा या रानी को देखने की प्रवृत्ति विशेष आपत्तिजनक होने से उसका गुरुचौमासी प्रायश्चित्त इन दो सूत्रों में कहा है / व्याख्याकार ने इसका प्रायश्चित्तक्रम इस प्रकार भी बताया है 'मणसा चितेति मास गुरु, उद्विते चउलहं, पदभेदे चउगुरु' 'एगपदभेदे वि चउगुरुगा किमंग पुण दिठे ! आणादिविराहणा भद्दपंता दोसा य / ' अर्थात् देखने का विचार करे तो मास गुरु, देखने के लिये उठे तो चतुर्लघु और चले तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है और जब एक कदम चलने पर भी चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है तो देखने की तो बात ही क्या? इससे प्राज्ञाभंग दोष होता है तथा राजा अनुकूल या प्रतिकूल हो तो अन्य अनेक दोष भी लग सकते हैं। शिकारादि के निमित्त निकले राजा का आहार ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त-- 10. जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं मंसखायाण वा, मच्छखायाण वा, छविखायाण वा बहिया जिग्गयाणं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 10. जो भिक्षु मांस, मछली व छवि आदि खाने के लिये बाहर गये हुए, शुद्ध वंशज मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य को ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / ) विवेचन-राईणं णियग्गयाणं तत्थेव असणं-पाणं-खाइम-साइमं उक्करेंति तडियकप्पडियाणं वा तत्थेव भत्तं करेज्ज / " अर्थात् मांस, मच्छ आदि खाने के लिये वन में या नदी, द्रह-समुद्र आदि स्थलों पर गये हुए राजा के वहां पर अशनादि भोजन भी हो सकता है, ऐसा आहार भी ग्रहण करना नहीं कल्पता है। राजा ने जहां भोजन किया हो, वहां से आहार ग्रहण करने का प्रायश्चित्त 11. जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अण्णयरं उववृहणीयं समोहियं पेहाए तीसे परिसाए अणुट्टियाए, अभिण्णाए अवोच्छिण्णाए जो तमण्णं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं का साइज्जइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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