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________________ 178] [निशीथसूत्र वहिं वा, गवणीयं वा, प्पि वा, गुलं वा, खंडं वा, सक्करं वा, मच्छंडियं वा, अण्णयरं भोयणजायं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ। 18. जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं उस्सठ्ठ-पिडं वा, संसह-पिडं वा, अणाह-पिडं वा, वणीमग-पिडं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ / तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारठाणं अणुग्धाइयं / 14. जो भिक्षु मूर्द्धाभिषिक्त शुद्धवंशीय क्षत्रिय राजा के–१. मेले आदि में, 2. पितृभोज में, 3. इन्द्र, 4. कार्तिकेय, 5. ईश्वर, 6. बलदेव, 7. भूत, 8. यक्ष, 9. नागकुमार, 10. स्तूप, 11. चैत्य, 12. वृक्ष, 13. पर्वत, 14. गुफा, 15. कुआ, 16. तालाब, 17. ह्रद, 18. नदी, 19. सरोवर, 20. समुद्र, 21. खान इत्यादि किसी प्रकार के महोत्सव में तथा अन्य भी इसी प्रकार के अनेक महोत्सवों में उनके निमित्त से बना अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 15. जो भिक्षु श्रेष्ठ कुलोत्पन्न मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा जब उत्तरशाला या उत्तरगृह (मंडप) में रहता हो तब उसका अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 16. जो भिक्षु 1. अश्वशाला, 2. हस्तिशाला, 3. मंत्रणाशाला, 4. गुप्तशाला, 5. गुप्तविचारणाशाला या 6. मैथुनशाला में गये हुए श्रेष्ठ कुलोत्पन्न मूर्दाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य को ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 17. जो भिक्षु श्रेष्ठ कुलोत्पन्न मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के विनाशी द्रव्यों या अविनाशी द्रव्यों के संग्रहस्थान से दूध, दही, मक्खन, घृत, गुड, खांड, शक्कर या मिस्री तथा अन्य भी कोई खाद्य पदार्थ ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 18. जो भिक्षु श्रेष्ठ कुलोत्पन्न मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के 1. उत्सृष्टापड, 2. भुक्तविशेषपिंड, 3. अनाथपिंड या 4. वनीपपिंड, (भिखारीपिंड) को ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। उपर्युक्त 14 से 18 सूत्रों में कहे गये दोषस्थान को सेवन करने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है। ___ विवेचन-छठे उद्देशक से लेकर इस उद्देशक के १३वें सूत्र तक स्त्री सम्बन्धी प्रायश्चित्तों का कथन निरन्तर हुआ है। उनका गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। सूत्र 14 से पाठवें उद्देशक के पूर्ण होने तक और संपूर्ण नवमें उद्देशक में अनेक प्रकार के राजपिंड तथा राजा से संबंधित अनेक प्रसंगों के प्रायश्चित्त कहे गये हैं / यहां राजा के लिए तीन विशेषणों का प्रयोग है, जिसका संक्षिप्त अर्थ है-'बहुत बड़े राजा" प्रत्येक शब्द का अर्थ इस प्रकार है , 1. मुदिय-शुद्धवंशीय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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