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________________ यह सहज जिज्ञासा उद्भूत हो सकती है---पूर्वगत आचार नामक वस्तु के आधार पर निशीथ का निर्माण या निर्यढ हुआ, उसका नाम आचारप्रकल्प था। विषयसाम्य होने के कारण उसे आचारांग में जोड़ दिया गया हो।' प्राचारप्रकल्प में प्रायश्चित्त का विधान होने से यह अत्यधिक प्रावश्यक था कि तीर्थंकर की वाणी के समान ही वह भी प्रमाणभूत माना जाय / इसी दृष्टि से आचारांग की चूला के रूप में उसकी स्थापना की गई हो। आचारांगनियुक्ति के आधार से यह स्पष्ट है कि प्राचारांग की प्रथम चार चलाएं तो प्राचारांग के आधार पर निर्मित हुई हैं, किन्तु पांचवीं चूला निशीय का निर्माण प्रत्याख्यान नामकः 'पूर्व' से हुआ था / निशीष का एक नाम आचार भी है। आचारोगनियुक्ति में आचारांग की चलिकाओं के विषय में स्पष्ट रूप से लिखा है कि आचारांग आचारचलिकानों के विषय को स्थविरों ने आचार में से हो लेकर शिष्यों के हित के लिए चलिकाओं में विभक्त किया। आचारोगनियुक्ति गाथा 287 में 'थेरेहिं' शब्द का प्रयोग हुआ है / स्थविर शब्द की व्याख्या करते हुए प्राचार्य शीला ने लिखा है कि आचारांग को किसने नियूद किया और वे कौन थे? स्थविर थे या चतुर्दशपूर्वधर थे?3 किन्तु आचारांगण में स्थविर शब्द का अर्थ गणधर किया है।४ निशीथचूणि में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि निशीयसूत्र के कर्ता अर्थ की दृष्टि से तीर्थंकर हैं और सूत्र की दृष्टि से गणधर हैं। निशीथचूणि के अनुसार भी निशीथ के कर्ता गणधर माने गये हैं। इसका मूल कारण निशीथ को अंगसाहित्य के अन्तर्गत गिना है। यहां पर स्थविर शब्द के अर्थ को लेकर परस्पर में मतभेद है। आचार्य शीला ने स्थविर शब्द का अर्थ चतर्दशपर्वी त किया है किन्तु गणधर नहीं किया। जबकि आचारांगचणि और निशीथ ण में स्थविर का अर्थ गणधर किया है। इसका मूल कारण यह हो सकता है कि निशीथ आचारांग का ही अंश है। आचारांग अंग-आगम है / अंगों के अर्थप्ररूपक तीर्थकर होते हैं और सवरचयिता गणधर होते हैं। इस दृष्टि से उन्होंने निशीथ को गणधरकृत माना हो। यहां यह प्रश्न सहज ही समुत्पन्न हो सकता है कि नियुक्ति तो चूणि के पूर्व बनी है। नियुक्तिकार ने निशीथ को स्थविरकृत और चर्णिकार ने गणधरकृत लिखा है। उसका प्रमुख कारण यही हो सकता है कि अंगों के रचयिता गणधर होते हैं, इसलिए गणधरकृत लिखा हो। -आचारांगनियुक्ति गा. 281 1. (क) "आयारपकप्पो पुण पच्चक्खाणस्स तइयवत्यूमो। प्रायारनामधिज्जा वीसइमा पाहुडच्छेया / / (ख) व्यवहारभाष्य गा. 200 2. “थेरेहिऽणुग्गहट्ठा सोसहि होउ पागडत्थं च / पायाराग्रो अस्थो पायारम्गेसु पविभतो॥" 3. स्थविरैः श्रुतवृद्ध श्चतुर्दशपूर्वविद्धि / 4. एयाणि पुण आयाएमाणि आयार चेव निज्जूढाणि / केण णिज्जूढाणि 2 थेरेहिं 287 थेरा-गणधराः // -आचारांगनियुक्ति गा. 287 --आचारांगनियुक्ति गा. 287 -आचारांगचूणि पृ. 336 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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