SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवां उद्देशक] [167 की अशुद्धि को दूर करना तथा मनोज्ञ पुद्गल के प्रक्षेप करने का तात्पर्य है शरीर, उपधि या मकान को सुसज्जित करना। शरीर को पुष्ट करने के लिये छ8 उद्देशक के अंतिम सूत्र में पौष्टिक आहार सेवन करने का प्रायश्चित्त कथन हुआ है / अतः यह कथन शरीर की बाह्य त्वचा आदि की अपेक्षा से समझना चाहिये। चिकित्सा संबंधी कथन सूत्र 80 में किया गया है। उसके अनंतर ही इन दो सूत्रों में बाह्य शुद्धि अथवा सुसज्जित करने का प्रायश्चित्त कहा गया है। व्याख्याकार ने इसका संबंध शरीर के अतिरिक्त उपधि और मकान के साथ भी किया है। जो शुद्धि और शोभा से ही संबंधित होता है। पशु-पक्षियों के अंगसंचालन आदि का प्रायश्चित्त 53. जे भिक्ख माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा, पक्खिजायं वा, पायंसि वा, पक्खंसि वा, पुच्छंसि वा, सीससि वा गहाय संचालेइ संचालतं वा साइज्जइ / 24. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरं पसुजायं वा, पक्खिजायं वा, सोयसि कट्ठ वा, किलिचं वा अंगुलियं वा, सलागं वा अणुप्पवेसित्ता संचालेइ, संचालतं वा साइज्जइ / 55. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरं पसुजायं वा, पक्खिजायं वा अयमिथित्ति कटु आलिगेज्ज वा, परिस्सएज्ज वा, परिचुम्बेज्ज वा छिदेज्ज वा, विच्छिंदेज्ज वा, आलिंगंतं वा, परिस्सयंतं वा, परिचुबंतं वा, छिदंतं वा, विच्छिंदतं वा साइज्जइ / 53. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी जाति के पशु या पक्षी के 1. पांव को, 2. पार्श्वभाग को, (पंख को) 3. पूछ को या 4. मस्तक को पकड़ कर संचालित करता है या संचालित करने वाले का अनुमोदन करता है। 84. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी जाति के पशु या पक्षी के श्रोत अर्थात् अपानद्वार या योनिद्वार में काष्ठ, खपच्ची, अंगुली या बेंत आदि की शलाका प्रविष्ट करके संचालित करता है या संचालित करने वाले का अनुमोदन करता है। 85. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी जाति के पशु या पक्षी को "यह स्त्री है" ऐसा जानकर उसका आलिंगन (शरीर के एक देश का स्पर्श) करता है, परिष्वजन (पूरे शरीर का स्पर्श) करता है, मुख का चुबन करता है या नख आदि से एक बार या अनेक बार छेदन करता है या आलिंगन आदि करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-आलिंगन आदि प्रवृत्तियां मोहकर्म के उदय से होती हैं। आचारांगसूत्र श्रु. 2, अ. 9 में भी इस प्रकार का पाठ है / वहां एकांत में स्वाध्यायस्थल पर गये साधुओं द्वारा परस्पर ऐसी प्रवृत्तियां करने का निषेध किया है / अनेक प्रतियों में "विछिदेज्ज" शब्द नहीं है, जो लिपि दोष से या भ्रम से नहीं लिखा गया है। किन्तु चूर्णिकार के सामने यह शब्द रहा होगा तथा आचारांगसूत्र में तो यह शब्द है ही, यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy