________________ छठा उद्देशक] - [155 78. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, खांड, शक्कर या मिश्री ग्रादि पौष्टिक आहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / उपर्युक्त 78 सूत्रों में कथित दोष-स्थानों का सेवन करने वाले को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - माउग्गामं 'मातिसमाणो गामो मातुगामो, मरहट्ठविसयभासाए वा "इत्थी' माउग्गामो भण्णति"--माता के समान है शरीरावयव जिसके उसे अर्थात् स्त्री को मातग्राम कहते हैं तथा महाराष्ट्र देश की भाषा में भी स्त्री को "माउग्गाम" कहा जाता है। अतः ये दोनों पर्यायवाची शब्द समझना चाहिये। विण्णवेइ--"विण्णवण--विज्ञापना-इह तु प्रार्थना परिगृह्यते।' वेदमोहनीयकर्म का प्रबल उदय होने पर जो भिक्षु आगमवाक्यों के चिंतन से उसे निष्फल नहीं करता है और स्त्री से प्रार्थना करता है अर्थात मैथन सेवन के लिए कहता है तो भाव से ब्रह्मचर्य भंग होने के कारण अथवा मैथुन सेवन करने पर चतुर्थ व्रत के भंग होने से उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है। आगमकार ब्रह्मचर्यव्रत की दुष्करता का वर्णन इस प्रकार करते हैं विरई अबंभचेरस्स, कामभोग रसण्णुणा। उग्गं महब्वयं बंभं, धारेयव्वं सुदुक्करं // -उत्त. अ. 19, गा. 28 दुक्खं बंभवयं धोरं, धारेउ अमहप्पणो। --उत्त. अ. 19. गा. 33 कामभोगों के रस के अनुभवी के लिए अब्रह्मचर्य से विरत होना और उग्र एवं घोर ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण-पालन करना अत्यन्त कठिन है।। जो प्रात्मा महान् नहीं है किन्तु क्षुद्र है, उसके लिए घोर दुष्कर ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करना अतीव कष्टकर है। ग्रागमकार ब्रह्मचर्य व्रत के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं मूलमेयं अहम्मस्स, महादोससमुस्सयं / तम्हा मेहुणसंसरगं, णिग्गंथा वज्जयंति णं // -दसवै. अ, 6, गा, 17 मेथुन अधर्म का मूल है और महान् दोषों का समूह है अत: निग्रंथ मैथुन संसर्ग का वर्जन करते हैं। 'संसार-मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्याण हु कामभोगा। -उत्तरा. 14 गा, कामभोग मोक्ष के विरोधी हैं अर्थात् संसार बढ़ाने वाले हैं अतएव ये अनर्थों की खान हैं / आगमकार अनेक सूत्रों में यथाप्रसंग ब्रह्मचर्य महाव्रत की सुरक्षा के लिये सावधान करते हैं१. दशवै. अ. 8, गा. 53-60 2. उत्त. अ. 8, गा. 4-6, 18-19 3. दशव. अ. 2, गा. 2-9 4. उत्त. अ. 9, गा. 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org