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________________ 150] [निशीचसूत्र "तुयटेंते" शब्द का प्रयोग "उस्सीसमूले" के विश्लेषण के लिये किया है और "उस्सीसमूले ठवेइ" सूत्र के विवेचन में ही व्याख्या पूर्ण कर दी है। "तुपट्टेइ” क्रिया वाला स्वतन्त्र सूत्र नहीं दिखाया है। वह सूत्र चूर्णिकार व भाष्यकार के सामने नहीं था, ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है / अतः यहां रजोहरण के कुल 10 सूत्र ही संगत प्रतीत होते हैं। भाष्य गाथा-"जे भिक्खू तुयते, रयहरणं सीसगे ठवेज्जाहि" // 2192 // "उस्सीसमूले ठवेइ" की व्याख्या रूप यह भाष्य गाथा है / इसमें "तुयटेंते" का प्रयोग देख कर किसी ने नया सूत्र लिख दिया हो, ऐसा भी सम्भव हो सकता है। किन्तु गद्यांश का यह स्पष्टार्थ है कि 'जो भिक्षु सोते समय रजोहरण को सिरहाने रखता है, वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है।' अतः इस गद्यांश से भी अलग-अलग दो सूत्र की कल्पना करना उचित नहीं होता है। पांचवें उद्देशक का सारांश 1-11. वृक्ष स्कन्ध के आस-पास की सचित्त पृथ्वी पर खड़े रहना, बैठना, सोना, आहार करना, मल त्याग करना, स्वाध्यायादि करना।। 12. अपनी चादर (आदि) गृहस्थ के द्वारा सिलवाना। छोटी चादर आदि को बांधने की डोरियां लम्बी करना। नीम आदि के अचित्त पत्तों को पानी से धोकर खाना / 15-22. शय्यातर के या अन्य के पादपोंछन व दण्ड आदि निदिष्ट समय पर नहीं लोटाना / 23. शय्या-संस्तारक लौटाने के बाद पुनः आज्ञा लिये बिना उपयोग में लेना / 24. ऊन, सूत आदि कातना। 25-30. सचित्त, रंगीन तथा अनेक रंगों से आकर्षक दण्ड बनाना या रखना। 31-32. नये बसे हुए ग्रामादि में या नई खानों में गोचरी के लिये जाना। 33-35. मुख अादि से वीणा बनाना या बजाना तथा अन्य वाद्य आदि बजाना। 36-38. प्रौद्देशिक, सप्राभूत, सपरिकर्म शय्या में प्रवेश करना या रहना। संभोगप्रत्ययिक क्रिया लगने का निषेध करना। 40-41. उपयोग में आने योग्य पात्र को फोड़कर या वस्त्र, कम्बल, पादपोंछन के टुकड़े करके परठना। 42. दण्ड लाठी के टुकड़े करके परठना / 43-52. रजोहरण-प्रमाण से बड़ा बनाना, फलियां सूक्ष्म बनाना, फलियों को आपस में संबद्ध करना, प्रविधि से बांधकर रखना, अनावश्यक एक भी बन्धन करना, आवश्यक भी तीन से अधिक बन्धन करना। पांच प्रकार के सिवाय अन्य जाति का रजोहरण बनाना, दूर रखना, पांव आदि के नीचे दबाना, सिर के नीचे रखना। इत्यादि प्रवृत्तियों का लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। उपसंहार-प्रारम्भ के चार उद्देशकों में संपूर्ण सूत्रों को दो विभागों में संग्रह किया है किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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