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________________ 144] [निशीयसूत्र जैन साधुओं के दिगबम्र, श्वेताम्बर, मन्दिरमार्गी, स्थानकवासी, तेरहपंथी आदि रूप जो भेद हैं, उनमें से एक संघ के साधुओं के उद्देश्य से बना हुआ आहार या मकान दूसरे संघ के साधुओं के लिये प्रौद्देशिक दोषयुक्त नहीं है / इस विषय का कथन मूल आगमों में नहीं है किन्तु प्राचीन व्याख्या ग्रन्थों में है। उसका प्राशय यह है कि जिनके सिद्धान्त और वेश समान हों वे प्रवचन एवं लिंग (उभय) से साधर्मिक कहे जाते हैं / इस प्रकार के सार्मिक साधु के लिये बना आहार मकान आदि दूसरे साधर्मिकों के लिये भी कल्पनीय नहीं होता है। उपर्युक्त चारों जैन विभागों के वेश और सिद्धान्तों में भेद पड़ गये हैं और प्रत्येक संघ ने एक दूसरे से सर्वथा भिन्न व स्वतन्त्र अस्तित्व धारण कर लिया है / अत. एक जैन संघ का प्रौद्देशिक मकान आदि दूससे संघ वालों के लिये औद्देशिक नहीं है। छोटे क्षेत्र के छोटे श्रावकसमाज में सभी जैन संघों के मिश्रित भाव से निर्मित औद्देशिक शय्या आदि सभी संघों के साधुओं के लिये प्रौद्देशिकदोषयुक्त ही समझना चाहिये। संभोग-प्रत्ययिक क्रियानिषेध का प्रायश्चित्त 39. जे भिक्खू "णस्थि संभोग-वत्तिया किरियत्ति" वयइ, वयं वा साइज्जइ / 39. जो भिक्षु "संभोग प्रत्ययिक क्रिया नहीं लगती हैं", इस प्रकार कहता है या कहने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन---"एकत्र भोजनं संभोगः, तत्प्रत्यया क्रिया-कर्मबंधः, नास्तीति, जो एवं भाषते, तस्स मास लहुं / एस सुत्तत्थो।" "संभोइओ संभोइएण समं उवहिं सोलसेहि आहाकम्मादिएहि उग्गमदोसेहि सुद्धं उप्पाएति तो सुद्धो, अह असुद्धं उप्पाएइ, जेण उग्गमदोसेण असुद्धं गेण्हति, तत्थ जावतिओ कम्मबंधो जं च पायच्छित्तं तं आवज्जति ।"-नि. चूणि / जिसके साथ में आहार आदि का संभोग होता है ऐसा कोई भी सांभोगिक साधु आहारादि की गवेषणा में कोई दोष लगाता है तो उस वस्तु का उपयोग करने वालों को भी गवेषणा दोष संबंधी क्रिया अर्थात् कर्मबंध व प्रायश्चित्त आता है। अतः संभोगप्रत्ययिक क्रिया के संबंध में गलत धारणा तथा प्ररूपणा नहीं करनी चाहिये / संभोग-विसंभोग संबंधी विस्तृत जानकारी के लिये भाष्य का अध्ययन करना आवश्यक है / सामान्य जानकारी के लिये बृहत्कल्प उ. 4 सूत्र 23 का विवेचन देखें। धारण करने योग्य उपधि के परित्याग का प्रायश्चित्त-- 40. जे भिक्खू लाउय-पायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा, अलं थिरं धुवं धारणिज्ज परिभिदिय-परिभदिय परिढुवेइ, परितं वा साइज्जइ। 41. जे भिक्खू वत्यं वा, कंबलं वा, पायछणं वा, अलं थिरं धुवं धारणिज्जं पलिछिदियपलिछिदिय परिढुवेइ, परिवंत वा साइज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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