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________________ पांचवां उद्देशक] [141 ग्राम नगरादि में ये स्थान तीन प्रकार के मिलते हैं-- 1. कल्प्य–दोष रहित = पूर्ण शुद्ध, साधु-साध्वी के ठहरने योग्य / 2. अकल्प्य-दोष युक्त = साधु-साध्वी के ठहरने के अयोग्य / 3. कल्प्याकल्प्य-दोष युक्त होते हुए भी कालान्तर से या पुरुषान्तरकृत होने पर ठहरने योग्य / कल्प्य उपाश्रय 1. कोई एक व्यक्ति केवल अपने लिये या सामाजिक उपयोग के लिये अथवा धार्मिक क्रियाओं को सामूहिक आराधना के लिये नये मकान का निर्माण करवाता है। 2. किसी उदारमना गृहस्थ या किसी बहिन द्वारा अपना अतिरिक्त मकान धार्मिक पाराधना के लिये अथवा साधु-साध्वियों के ठहरने के लिये संघ को समर्पित कर दिया जाता है। 3. बड़े-बड़े क्षेत्रों के समाज या संघ में मतभेद होने पर विभिन्न पक्षों के द्वारा भिन्न-भिन्न मकानों का निर्माण करवाया जाता है / 4. एक उपाश्रय होते हुए भी चातुर्मास आदि में भाई एवं बहिनों के स्वतन्त्र पोषध, प्रतिक्रमण आदि करने के लिये दूसरे उपाश्रय की आवश्यकता प्रतीत होने पर नये मकान का निर्माण करवाया जाता है। 5. धार्मिक क्रियाओं की आराधना के लिये किसी का बना हुआ मकान खरीद लिया जाता है। इन मकानों में साधु-साध्वियों के निमित्त निर्माण कार्य आदि न होने से ये पूर्ण निर्दोष होते हैं। अकल्प्य उपाश्रय-- 1. कई ऐसे गांव होते हैं जिनमें जैन गहस्थों के केवल एक-दो घर होते हैं या एक भी घर नहीं होता है, वहां साधु-साध्वियों के ठहरने के लिये नये मकान का निर्माण किसी एक व्यक्ति द्वारा या कुछ सम्मिलित व्यक्तियों द्वारा करवाया जाता है। 2. सन्त-सतियों के ठहरने के स्थान अलग-अलग होने चाहिये, ऐसा अनुभव होने पर दूसरे मकान का निर्माण करवाया जाता है। 3. नये बसे हुए गांव या उपनगर में अथवा पुराने गांव में धर्म भावना या प्रवृत्ति बढ़ने पर गृहस्थों की धार्मिक पाराधनाओं के लिये और साधु-साध्वियों के ठहरने के लिये मकान का निर्माण करवाया जाता है। 4. सतियों के ठहरने के लिये और बहिनों की धार्मिक पाराधनाओं के लिये भी नये मकान का निर्माण करवाया जाता है / इन मकानों के बनवाने में प्रमुख उद्देश्य साधु-साध्वियों का होने से प्रौद्देशिक एवं मिश्रजात दोष के कारण ये पूर्णतः अकल्पनीय होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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