________________ पांचवां उद्देशक] [139 भूमि को सम-विषम करना, सचिन-वस्तुओं को तथा अचित्त भारी सामान को स्थानांतरित करना आदि कार्य जहां किये गये हों वह "परिकर्म दोष' युक्त शय्या कही जाती है। आचारांगसूत्र श्रु. 2, अ. 2. उ. 1 में कहा गया है कि उपर्युक्त परिकर्म युक्त शय्या में रहना भिक्षु को नहीं कल्पता है / किन्तु ये परिकर्म कार्य साधु के लिये करने के बाद यदि गृहस्थ ने उस स्थान को अपने उपयोग में ले लिया हो तो उसके बाद साधु को वहां रहना कल्पता है / अत: गृहस्थ के उपयोग में लेने से पूर्व ही परिकर्म दोषयुक्त शय्या में प्रवेश करने से सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है / 1. "उद्देशिक" जावतियं उद्देसो, पासंडाणं भवे समुद्देसो / समणाणं तु आदेसो, णिग्गंथाणं समादेसो // 2020 // 1. सभी प्रकार के यात्रियों के लिये, 2. सभी प्रकार के पाषंडी अर्थात् सभी मतों के गृहत्यागियों के लिये, 3. शाक्यादि पांच प्रकार के श्रमणों के लिये, 4. जैन साधुओं के लिए निर्मित मकान, इन चारों प्रकार की शय्या में प्रवेश करने से लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है / / ___ आचारांग श्रु. 2, अ. 2, उ. 1, में 'बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय पगणिय ...' 1. यह सूत्र है / इस सूत्र के अर्थ की अपेक्षा को-भाष्यकृत प्रथम द्वितीय विकल्प में समझ लेना चाहिये। तीसरे विकल्प को आचारांग कथित 'सावध क्रिया' में व चौथे विकल्प को 'महासावद्य' क्रिया में समझ लेना चाहिये / 2. 'पाहुर्ड'-मकान बनाने के समय का परिवर्तन करने के सिवाय अन्य कार्य भी आगे पीछे करने से पाहुड दोष होता है। ऐसा भाष्य में बताया गया है / विद्धसण छावण लेवणे य, भूमिकम्मे पडुच्च पाहुडिया। ओसक्कण अहिसक्कण, देसे सव्वे य णायव // 2026 // सम्मज्जण वरिसोयण, उवलेवण पुप्फ दीवए चेव / ओसक्कण उस्सक्कण, देसे सव्वे य णायव्वा // 2031 // इन दोनों गाथाओं में क्रमशः बादर व सूक्ष्म परिकर्म आदि कार्यों का कथन करके "अोसक्कण-उस्सक्कण" पद दिया गया है, जिसकी चूणि इस प्रकार है-- "एते पुव्वं अप्पणो कज्जमाणे चेव नवरं साहवो पडुच्च ओसक्कणं उससक्कणं वा"। अर्थात् अपने लिए पहले से किये जा रहे कार्य को साधु के निमित्त से पहले-पोछेक रना। सूक्ष्म बादर परिकर्म कार्यों का और उनके "प्रोसक्कण उस्सक्कण" का विस्तृत वर्णन भाष्य से जानना चाहिये। 3. 'परिकर्म'-पाहुड दोष में भी पागे-पीछे करने के प्रसंग से कुछ परिकर्म कार्यों का कथन हुआ है / तथापि इस सूत्र में परिकर्म कार्यों का मूलगुण व उत्तरगुण के भेद की विवक्षा से संग्रह किया गया है / वह इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org