________________ पांचवां उद्देशक] [137 अर्थ-जो भिक्षु 1. लोहा, 2. तांबा, 3. तरुणा (रांगा), 4. शीशा, 5. चांदी, 6. सोना या 7. वज्ररत्न को खान के समीप बसी हुई नवीन वसति में जाकर अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-खाने लोहे, सोने आदि अनेक प्रकार की होती हैं / उन खानों के समीप उनमें कार्य करने वाले लोग निवास करते हैं / ऐसी नई बसी हुई बस्तियों में गोचरी आदि के लिये नहीं जाना चाहिये / पूर्व सूत्र में नये बसे हुए ग्रामादि में गोचरी जाने का प्रायश्चित्त कहा गया है। क्योंकि वहाँ कुछ लोग शकुन-अपशकुन को मान्यता वाले होते हैं तथा खानों में शकुन-अपशकुन के सिवाय वहां से निकाले जाने वाले पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ लोगों के मन में लाभ-अलाभ की आशंका भी उत्पन्न हो सकती है, अतः प्रायश्चित्त का यह सूत्र अलग कहा गया है तथा खान के निकट होने से पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना होना भी संभव है / कभी चोरी का प्राक्षेप भी साधु पर पा सकता है / इसलिए इन स्थानों पर गोचरी आदि के लिये नहीं जाना चाहिए। कई प्रतियों में 'रयणागरंसि' शब्द अधिक है। जो लिपि दोष से आ गया है। यहां वज्ररत्न के कथन से सभी रत्नों का ग्रहण हो जाता है। वीणा बनाने व बजाने का प्रायश्चित्त 33. जे भिक्खू मुंह-वीणियं वा, दंत-वीणियं वा, ओट-धीणियं वा, णासा-वीणियं वा, कक्ख-वीणियं वा, हत्थ-वीणियं वा, णह-वीणियं वा, पत्त-वोणियं वा, फल-वीणियं वा, बीय-वीणियं वा, हरिय-वीणियं वा करेइ, करेंतं वा साइज्जइ / 34. जे भिक्खू मुंह-वीणियं वा जाव हरिय-वीणियं वा वाएइ, वाएंतं वा साइज्जइ / 35. जे भिक्खू अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि अणुद्दिण्णाई सद्दाई उदीरेइ, उदीरेंतं वा साइज्ज। 33. जो भिक्षु, 1. मुह, 2. दांत, 3. अोष्ठ, 4. नाक, 5. काँख, 6. हाथ, 7. नख, 8. पत्र, 9. पुष्प, 10. फल, 11. बीज या 12. हरी घास को वीणा जैसी ध्वनि निकालने योग्य बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है। जो भिक्षु मुख से यावत् हरी घास से वीणा बजाता है या बजाने वाले का अनुमोदन करता है। 35. जो भिक्षु अन्य भी इसी प्रकार के अनुत्पन्न शब्दों को उत्पन्न करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-उपर्युक्त 12 प्रकार की वीणाओं में 7 शरीर से सम्बन्धित हैं शेष 5 वनस्पति से सम्बन्धित हैं / ये वीणाएं प्राकृति से या अन्य किसी पदार्थ के संयोग से बजाई जा सकती हैं। इनके बनाने व बजाने में कुतूहल वृत्ति या चंचल वृत्ति अथवा मानसंज्ञा प्रमुख होती है, जो साधु के लिए अनुचित है। इनके बनाने में शरीर के अवयवों को विकृत करना पड़ता है और वनस्पति का छेदन 34. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org