________________ चतुर्थ उद्देशक] [117 चूर्णिकार ने यहां 41 सूत्र संख्या का निर्देश किया है वह इस प्रकार है-... "इत्यादि एक्कतालीसं सुत्ता उच्चारेयव्वा जाव अण्णमण्णस्स सोसदुवारियं करेइ इत्यादि अर्थः पूर्ववत् / गाथा-पादादि तु पमज्जण, सीसदुवारादि जो गमो ततिए। अण्णोण्णस्स तु करणे सो चेव गमो चउत्थम्मि // 1855 / / तृतीय उद्देशगमेन नेयं / चूणि / इस व्याख्या में किसी भी मूत्र को कम करने का निर्देश नहीं होते हुए भी चूणि में सूत्र संख्या 41 कहने का कारण यह है कि तीसरे उद्देशक में 26 सूत्रों के लिये सूत्रसंख्या 26 कह कर भी पद संख्या 13 कही है / उसी पद संख्या को संभवतः यहां सूत्रसंख्या गिन ली गई है। जिससे 54 में से 13 की संख्या कम होने पर 41 सूत्रसंख्या कही गई है / अतः उपर्युक्त 54 सूत्रों का मूल पाठ इस उद्देशक में होने पर भी चूर्णिकारकथित 41 की संख्या में कोई विरोध नहीं होता है। केवल विवक्षा भेद ही है। सूत्र 64 से 117 तक अन्योन्य शरीर-परिकर्म सूत्र तीसरे उद्देशक के समान है। इनकी तालिका इस प्रकार है-- संख्या 64 से 69 पैर-परिकर्म काया-परिकर्म 76 से 21 व्रण-चिकित्सा 52 से 87 गंडमाल आदि की शल्य-चिकित्सा कृमि निकालना नख काटना रोम-परिकर्म 96 से 98 दंत-परिकर्म 99 से 104 होठ-परिकर्म 105 से 111 चक्ष-परिकर्म 112 से 114 रोम-केश परिकर्म 115 प्रस्वेद निवारण चक्षु आदि का मैल निकालना 117 मस्तक ढांक कर विहार करना 170 से 75 ur your r u mor , r or orar | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org