________________ चतुर्थ उद्देशक] [115 7. "सोरट्ठिय".--.फिटकरी--"सोरठ्ठिया तूवरिया जीए सुवण्णकारा उप्पं करेंति सुव्वण्णस्स पिडं"। 8. उक्कुट्ठ-.."सचित्त वणस्सइचुण्णो ---प्रोक्कुट्ठो भण्णति'' प्राकृत भाषा में अनेक __विकल्प होते हैं, इसलिये- 'उक्कट्ठ, उक्किट्ठ-उक्कुट्ठ' तीनों ही शुद्ध हैं तथा सेढिय सेडिय' दोनों शुद्ध हैं / दोनों चूणि में मिलते हैं। इन 15 सूत्रों में जो प्रायश्चित्तविधान है इनका निर्देश प्राचारांग श्रु. 2, अ 1, उ. 6 व दशकालिक अ.५, उ.१ में हग्रा है। दशवैकालिक सत्र में इस विषय की दो गाथाएँ हैं, जिनमें 16 प्रकार से हाथ आदि लिप्त कहे हैं / वहां "सोरठिय' के बाद जो "पिट्ठ" शब्द है वह “सोरट्ठिय" पर्यंत कही गई सभी कठोर पृथ्वियों का विशेषण मात्र है / क्योंकि उन कठोर पृथ्वियों के चूर्ण से ही हाथ लिप्त हो सकता है / अतः पृथ्वी संबंधी शब्दों के समाप्त होने पर इस शब्द का प्रयोग गाथा में हुआ है किन्तु उसे भी स्वतंत्र शब्द मान कर 17 प्रकार से लिप्त हाथ आदि हैं ऐसा अर्थ किया जाता है / वह तर्कसंगत नहीं है अपितु केवल भ्रान्ति है / ___"अगस्त्य चूणि में व जिनदासगणी की चूणि में "पिट्ठ" शब्द को स्वतंत्र मान कर जो अर्थसंगति की गई है वह इस प्रकार है "अग्नि की मंद आंच से पकाया जाने वाला अपक्व पिष्ट (पाटा) एक प्रहर से शस्त्रपरिणत (अचित्त) होता है और तेज अांच से पकाया जाने वाला शीघ्र शस्त्रपरिणत होता है / यहां पिष्ट (धान्य के प्राटे) को अग्नि पर रखने के पहले और बाद में सचित्त बताया है वह उचित नहीं है। धान्य में चावल तो अचित्त माने गये हैं और शेष धान्य एकजीवी होते हैं, वे धान्य पिस कर ग्राटा बन जाने के बाद भी घंटों तक पाटा सचित्त रहे यह व्याख्या भी "पिट्ठ' शब्द को अलग मानने के कारण ही की गई है। गोचरी के समय घर में आटे से भरे हाथ दो प्रकार के हो सकते हैं--- 1. पाटा छानते समय या वर्तन से परात में लेते समय, 2. धान्य पीसते समय। धान्य पीसने वाले से तो गोचरी लेना निषिद्ध है ही और छानते समय तक सचित्त मानना संगत नहीं है / अत: "पिष्ट" शब्द को सूत्रोक्त पृथ्वीकाय के शब्दों का विशेषण मानकर उनके चर्ण से लिप्त हाथ आदि ऐसा अर्थ करने से मूल पाठ एवं अर्थ दोनों की संगति हो जाती है / दशवकालिक सूत्र में इस विषय के 16 शब्द हैं। यहां उनका 14 सूत्रों में प्रायश्चित्त कहा है। "उदउल्ल" में "ससिणिद्ध” का प्रायश्चित्त समाविष्ट कर दिया गया है और 'ससरक्ख' का प्रायश्चित्त मट्टियासंसट्ट' में समाविष्ट कर दिया गया है। अतः 14 सूत्र ही होते हैं और एक सूत्र "असंसट्ठ" का होने से कुल 15 सूत्र होते हैं / भाष्य गाथा से इनका क्रम स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। चूर्णिकार ने कुछ शब्दों के ही अर्थ किये हैं। भाष्य गाथा--"उदउल्ल, मट्टिया वा, ऊसगते चेव होति बोधब्बे / हरिताले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे // 1848 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org