________________ 110] [निशीथसूत्र 4. झाणं-ध्यान-पूर्व रात्रि या पिछली रात्रि में ध्यान करना। 5. भिक्खं-दोष रहित गवेषणा करना। 6. भत्तठे-आगमोक्त विधि से आहार करना / 7. काउसग्ग---गमनागमन, गोचरी, प्रतिलेखन आदि के बाद कायोत्सर्ग करना / 8. पडिक्कमणे-प्रतिक्रमण करना / 9. कितिकम्म-कृतिकर्म-वन्दन करना। 10. पडिलेहा–प्रतिलेखन-बैठना आदि प्रत्येक कार्य देखकर करना तथा प्रत्येक वस्तु देख कर या प्रमार्जन कर उपयोग में लेना। जो प्रोसण्ण-अवसन्न होता है वह आवस्सही आदि दस प्रकार की समाचारियों को कभी करता है, कभी नहीं करता है, कभी विपरीत करता है। इस प्रकार स्वाध्याय आदि भी नहीं करता है या दूषित आचरण करता है तथा शुद्ध पालन के लिये गुरुजनों द्वारा प्रेरणा किये जाने पर उनके वचनों की उपेक्षा या अवहेलना करता है / वह "अवसन्न" कहा जाता है। 3. कुसील-कुशील जो निन्दनीय कार्यों में अर्थात् संयम-जीवन में नहीं करने योग्य कार्यों में लगा रहता है वह "कुशील" कहा जाता है। कोउय भूतिकम्मे, पसिणापसिणं णिमित्तमाजीवी / कक्क-कुख्य-सुमिण लक्खण-मूल मंत-विज्जोवजीवी कुसोलो उ // 4345 / / 1. जो कौतुककर्म करता है। 2. भूतिकर्म करता है। 3. अंगुष्ठप्रश्न या बाहुप्रश्न का फल कहता है अथवा आंखों में अंजन करके प्रश्नोत्तर करता है। 4. अतीत की, वर्तमान की और भविष्य की बातें बताकर आजीविका करता है। 5. जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प से प्राजीविका करता है / 6. लोध्र, कल्क आदि से अपनी जंघा यादि पर उबटन करता है। 7. शरीर की शुश्रुषा करता है अर्थात् बकुश भाब का सेवन करता है। 8. शुभाशुभ स्वप्नों का फल कहता है / 9. स्त्रियों के या पुरुषों के मस-तिल आदि लक्षणों का शुभाशुभ फल कहता है। 10. अनेक रोगों के उपशमन हेतु कंदमूल का उपचार बताता है अथवा गर्भ गिराने का महापाप मूलकर्म दोष करता है। 11. मंत्र या विद्या से आजीविका करता है। वह "कुशील" कहा जाता है / ४–संसत--संखेवो इमो-जो जारिसेसु मिलति सो तारिसो चेव भवति एरिसो संसत्तो णायव्वोचणि / / . जो जैसे साधुओं के साथ रहता है वह वैसा ही हो जाता है। अतः वह संसक्त कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org