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________________ चतुर्थ उद्देश्क] [107 44. जे भिक्खू 'कुसीलस्स' संघाडयं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ। 45. जे भिक्खू 'संसत्तस्स' संघाडयं देइ, देतं वा साइज्जइ / 46. जे भिक्खू संसत्तस्स' संघाडयं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ / 47. जे भिक्खू नितियस्स' संघाडयं देइ, देंतं वा साइज्जइ / 48. जे भिक्खू 'नितियस्स' संघाडयं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ / 39. जो भिक्षु 'पार्श्वस्थ' को संघाडा देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 40. जो भिक्षु 'पार्श्वस्थ' से संघाडा ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 41. जो भिक्षु 'अवसन्न' को संघाडा देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 42. जो भिक्षु 'अवसन्न' से संघाडा ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 43. जो भिक्षु 'कुशील' को संघाडा देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 44. जो भिक्षु 'कुशील' से संघाडा ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 45. जो भिक्षु 'संसक्त' को संघाडा देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 46. जो भिक्षु 'संसक्त' से संघाडा ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। 47. जो भिक्षु 'नित्यक' को संघाडा देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 48. जो भिक्षु 'नित्यक' से संघाडा ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन--'संघाडयं'-दो या दो से अधिक साधुओं का समूह 'संघाटक' (संघाडा) कहलाता है तथा अनेक संघाटकों के समूह को गण या गच्छ कहा जाता है / प्रागम में कहीं कहीं संघाटक के लिये भी गण शब्द का प्रयोग किया गया है / संघाटक रूप में विचरने के लिये किसी को एक साधु देना भी संघाडा देना कहलाता है। इन सूत्रों में पासत्था आदि को विचरने के लिये अपना साधु देने का अर्थात् संघाडा देने का प्रायश्चित्त कहा गया है। पासत्था आदि के साथ में रहने से तथा गोचरी जाने के समय साथ-साथ जाने से प्राचारभेद अथवा गवेषणाभेद के कारण क्लेश पैदा होने की सम्भावना रहती है अथवा धर्म में भिन्नता दिखने से जिनशासन की अनेक प्रकार से अवहेलना भी हो सकती है तथा उस पासत्था आदि की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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