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________________ दूसरा उद्देशक] [91 तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं / जो भिक्ष दिन में, रात्रि में, या विकाल में उच्चार-प्रस्रवण के वेग से बाधित होने पर अपना पात्र ग्रहण कर या अन्य भिक्षु का पात्र याचकर उसमें उच्चार-प्रस्रवण का त्याग करके जहां सूर्य का प्रकाश (ताप) नहीं पहुँचता है ऐसे स्थान में परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। इन 80 सूत्रगत दोषस्थानों का सेवन करने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन-"अणुग्गए सूरिए"-- इसका सीधा अर्थ "सूर्योदय के पूर्व नहीं परठना" ऐसा भी किया जाता है किन्तु यह अर्थ प्रागमसम्मत नहीं होने से असंगत है / उसके कारण इस प्रकार हैं सूत्र में प्रयुक्त 'दिया वा' शब्द निरर्थक हो जाता है / क्योंकि 1. दिन में जिसने मल त्याग किया है उसकी अपेक्षा से "अणुग्गए सूरिए" इस वाक्य की संगति नहीं हो सकती है / 2. रात में मल-मूत्र पड़ा रखने से सम्मूच्छिम जीवों की विराधना होती है और अशुचि के कारण अस्वाध्याय भी रहता है। 3. रात्रि में परठने का सर्वथा निषेध हो जाता है। 4. उच्चार-प्रश्रवण भूमि का चौथे प्रहर में किया गया प्रतिलेखन भी निरर्थक हो जाता है। 5. अनेक आचार सूत्र गत निर्देशों से भी यह अर्थ विपरीत हो जाता है। अतः "जहां पर सूर्य नहीं उगता" अर्थात् जहां पर दिन या रात में कभी भी सूर्य का प्रकाश (ताप) नहीं पहुँचता है ऐसे छाया के स्थान में परठने का यह प्रायश्चित्त सूत्र है, ऐसा समझना युक्तिसंगत है। उच्चार-प्रस्रवण को पात्र में त्यागकर परठने की विधि का निर्देश आचारांग श्रु. 2, अ. 10 में तथा इस सूत्र में है। फिर भी अन्य आगम स्थलों का तथा इस विधान का संयुक्त तात्पर्य यह है कि-योग्य बाधा, योग्य समय व योग्य स्थंडिल भूमि सुलभ हो तो स्थंडिल भूमि में जाकर ही मलमूत्र त्यागना चाहिये / किन्तु दोघशंका का तीव्र वेग हो या कुछ दूरी पर जाने आने योग्य समय न हो, यथा-संध्या काल या रात्रि हो, ग्रीष्म ऋतु का मध्याह्न हो या मल मूत्र त्यागने योग्य निर्दोष भूमि समीप में न हो, इत्यादि कारणों से उपाश्रय में ही जो एकान्त स्थान हो वहां जाकर पात्र में मल त्याग करके योग्य स्थान में परठा जा सकता है। सूत्र 71 से 79 तक अयोग्य स्थान में परठने का प्रायश्चित्त कहा गया है जिसमें पृथ्वी, पानी की विराधना व देव छलना, स्वामी के प्रकोप लोक-अपवाद होने की संभावना रहती है / इस सूत्र 80 उपरोक्त अयोग्य स्थानों का वर्जन करने के साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि परठने के स्थान पर सूर्य की धूप पाती है या नहीं, धूप न आती हो तो जल्दी नहीं सूखने से सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति होकर ज्यादा समय तक विराधना होती रहती है / इस हेतु से अविधि परिष्ठापन का सूत्र में प्रायश्चित्त कहा गया है। ___ यदि किसी के अशुचि में कृमियाँ आती हों तो छाया में बैठना चाहिये या कुछ देर (10-20 मिनट) बाद परिष्ठापन करना चाहिये / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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