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________________ [निशीथसूत्र प्रायश्चित्त कहा जाता, लेप्य पदार्थ ग्रहण करने मात्र का प्रायश्चित्त होता व औषधसेवन मात्र का प्रायश्चित्तकथन होता अन्य विकल्पों से युक्त उपर्युक्त प्रकार के सूत्र नहीं होते। __ इस प्रकार के इन सूत्रों का आशय यह है कि ये प्रायश्चित्तसूत्र शरीर और उपकरणों के अकारण परिकर्म के हैं / अकारण सकारण का निर्णय गीतार्थ ही कर सकते हैं / गीतार्थ हुए बिना या गीतार्थ की निश्रा के बिना किसी को भी विचरण करना नहीं कल्पता है / बृहत्कल्प भाष्य गा. 688 // गीतार्थ और बहुश्रुत ये दोनों शब्द एक ही भाव के सूचक हैं / आगमों में प्रायः बहुश्रुत शब्द का प्रयोग है और व्याख्या ग्रंथों में "गीतार्थ" शब्द का प्रयोग है / गीतार्थ की व्याख्या बृहत्कल्प भाष्य पोठिका गा. 693 में है। बहुश्रुत की व्याख्या निशीथ भाष्य पीठिका गा. 495 में है। दोनों व्याख्यानों में एकरूपता है / वह व्याख्या इस प्रकार है आचारनिष्ठ व अनेक आगमों के अभ्यास के साथ "जघन्य आचारांग सूत्र और निशीथ सूत्र को अर्थ सहित कंठस्थ धारण करने वाला हो।" 'उत्कृष्ट 14 पूर्व का धारी हो।' और मध्यम में कम से कम पाचारांग, निशीथ, सूयगडांग, दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प व व्यवहार सूत्र का धारण करने वाला हो। यही व्याख्या बहुश्रुत के लिये और यही व्याख्या गीतार्थ के लिये की गई है। प्रागम में आये 'धारण करने का आशय यह है कि मूल और अर्थ कण्ठस्थ धारण करना / क्योंकि इन आगमों के भूल जाने का भी प्रायश्चित्त कथन है, तथा स्थविर को भूलने पर कोई प्रायश्चित्त नहीं है / ऐसा वर्णन व्यव. उ. 5 में है / __ अत: इस योग्यता वाले गीतार्थ (या बहुश्रुत) की नेश्राय से ही विचरना और उनकी नेत्राय से अपवादों का निर्णय करना योग्य होता है। अयोग्य को प्रमुख बनकर विचरण करने का निषेध व्यव. उ. 3 सूत्र 1 में है। वशीकरणसूत्र-करण प्रायश्चित्त 70. जे भिक्खू सण- कप्पासओ वा, उण्ण-कप्पासओ वा, पोंड-कप्पासओ वा, अमिलकप्पासओ वा वसीकरणसुत्ताई करेइ, करतं वा साइज्जइ / जो भिक्षु सन के कपास से, ऊन के कपास से, पोंड के कपास से अथवा अमिल के कपास से वशीकरण सूत्र (डोरा) बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन---- 1. सण-प्रसिद्ध वनस्पति / 2. ऊन-भेड़ के रोम। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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