________________ 84] [निशीथसूत्र छः सूत्र "व्रण" के व छः सूत्र 'गंडमाल' आदि के यों 12 सूत्रों की सकारणता अकारणता में, अन्य 42 सूत्रों से कुछ भिन्नता है, जिसका स्पष्टीकरण यथास्थान कर दिया गया है / उसका सारांश यह हैं कि 1. 42 सूत्रों में अकारण करना प्रायश्चित्त योग्य है। 2. 12 सूत्रों में यथाशक्ति सहन करने का लक्ष्य न रख कर शीघ्र उपचार करना प्रायश्चित्त योग्य है। यह 54 सूत्रों का समूह रूप एक आलापक या गमक है जिसका अन्यान्य अपेक्षा से उद्देशक 4-6-7-11-15-17 में भी कथन है / सर्वत्र इसी उद्देशक के मूल पाठ व अर्थ-विवेचन की सूचना की गई है / अतः इनको संक्षिप्त तालिका से पुनः समझ लेना चाहिये / पैर परिकर्म के सूत्र 22-27 काय परिकर्म के सूत्र 28-33 व्रण चिकित्सा के सूत्र गंडादि की शल्य चिकित्सा के सूत्र कृमिनीहरण का सूत्र नख परिकर्म का सूत्र 42-47 रोम परिकर्म के सूत्र (जंघ, वत्थि, रोमराइ, कक्ख, उत्तरोट्ठ और मंसु) 48-50 दंत परिकर्म के सूत्र प्रोष्ठ परिकर्म के सूत्र 57-63 चक्षु परिकर्म के सूत्र रोम केश परिकर्म के सूत्र (नासा, भमुग, केसाइं) 3 प्रस्वेद निवारण का सूत्र चक्षु, कर्ण, दंत नख, मल नीहरण सूत्र मस्तक ढंकने का सूत्र xxxorror इस तीसरे उद्देशक में प्रकारण स्वयं करने का प्रायश्चित्त बताया है। चौथे उद्देशक में अकारण साधु-साधु परस्पर में करने का प्रायश्चित्त बताया है। छठे सातवें उद्देशक में मैथुन भाव से क्रमशः स्वयं करने व साधु-साधु परस्पर करने का प्रायश्चित्त है। ग्यारहवें उद्देशक में साधु के द्वारा गृहस्थ के ये कार्य करने का प्रायश्चित्त है / पंद्रहवें उद्देशक में गृहस्थ से ये कार्य कराने का व स्वयं विभूषा वृत्ति से करने का दो पालापकों द्वारा प्रायश्चित्त कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org