SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा उद्देशक] [79 दाँतों की रुग्णता ज्ञात होने के बाद भी उपयुक्त सावधानियाँ रख कर शीघ्र ही चिकित्सा के निमित्त किये जाने वाले दंतप्रक्षालन से मुक्त हो जाना चाहिए, अर्थात् सदा के लिए दंतप्रक्षालन प्रवृत्ति को स्वीकार न करके खान-पान का विवेक करके अदंतधावन चर्या को स्वीकार कर लेना चाहिए। प्रस्तुत सूत्रों में अकारण मंजन करने का एवं प्रक्षालन करने का या अन्य कोई पदार्थ लगाने का प्रायश्चित्त कहा गया है ऐसा समझना चाहिए / विभूषा के संकल्प से मंजन आदि करने का लघु चौमासी प्रायश्चित्त आगे पन्द्रहवें उद्देशक में कहा गया है। पोष्ठ-परिकर्म-प्रायश्चित्त-- 51-56 जे भिक्खू अप्पणो उ8 आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ, एवं पायगमेण यन्वं जाव जे भिक्खू अप्पणो उ8 फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुमंतं वा रयंतं का साइज्ज। ५१-५६--जो भिक्षु अपने होठों का एक बार या बार-बार पामर्जन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, इस प्रकार पैर के आलापक के समान जानना यावत् जो भिक्षु अपने होठों पर रंग लगाता है या उसे चमकीला बनाता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन-पैर के सूत्रों के समान यहां भी विषयानुसार विवेचन जान लेना चाहिये / चक्षुःपरिकर्म-प्रायश्चित्त 57. जे भिक्खू अप्पणो दोहाई "अच्छिपत्ताई" कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्तं वा संठवेंतं या साइज्जइ। 58-63. जे भिक्खू अप्पणो अच्छोणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ एवं पायगमेणं णेयध्वं जाव जे भिक्खू अप्पणो अच्छोणि फुमेज्ज वा रएज्ज वा फुमंत वा रयंतं वा साइज्जइ। 57. जो भिक्षु अपने अक्षिपत्र-चक्षु रोमों को काटता है या सुधारता-संवारता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। 58-63. जो भिक्षु अपनी आंखों का एक बार या बार-बार आमर्जन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, इस प्रकार पैर के समान जानना यावत् जो भिक्षु अपनी आंखों को रंगता है या उसे चमकीला बनाता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-पैरों के 6 सूत्रों के समान अांख के 6 सूत्रों का विवेचन विषयानुसार समझ लेना चाहिए / अर्थात् वहाँ घर्षण-मलना व मर्दनादि क्रियाएँ करने में और आंख अोष्ठ संबंधी ये क्रियाएं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy