________________ इन शब्दों के अर्थ एवं विवेचन को प्राचीन व्याख्यानों से भिन्न करने का प्रमुख कारण आगम-आशय को सही समझाना ही रहा है। विशेष जानकारी के लिए अंकित स्थलों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। वहां विषय और आशय को हेतु एवं आगम-प्रमाणों से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। आचारप्रकल्प एवं प्रायश्चित्त की आरोपणा समवायोगसूत्र में अट्ठाईस प्रकार की प्रायश्चित्त आरोपणा को भी आचारप्रकल्प कहा गया है / उसका कारण भी यही है कि वह 28 प्रायश्चित्त प्रारोपणा भी प्राचारप्रकल्प-अध्ययन से ही सम्बन्धित है, अत: उसे आचारप्रकल्प कह दिया गया है। 28 प्रकार की आरोषणा के मूलपाठ में वहां लिपिदोष से कुछ विकृति हुई है, जिसकी व्याख्याकारों ने भी चर्चा नहीं की है। वहां आरोपणा का प्रारम्भ एक मास और पाच दिन से करके चार मास 25 दिन पर उसका अंत किया गया है, इस तरह बीच से प्रारम्भ कर बीच ही में पूर्ण करना संगत प्रतीत नहीं होता है। वास्तव में पांच रात्रि के प्रायश्चित्त-आरोपणा से प्रारम्भ कर एक मास तक 6 विकल्प और चार मास तक 24 विकल्प करने चाहिए / यही प्रायश्चित्त देने की आरोपणा की विधि एवं क्रम भाष्यादि से भी स्पष्ट सिद्ध होता है। किन्तु एक मास पांच दिन से प्रारम्भ करके 4 मास 25 दिन तक ही ले जाकर 24 भंग करने की संगति का कोई भी आधार नहीं है एवं उसके कारण का स्पष्टीकरण भी नहीं हो सकता है। अत: पांच दिन से लेकर चार मास तक के 24 बिकल्प करना ही उचित है। निशीथ में भी चार मास तक के ही प्रायश्चित्तस्थान कहे गये हैं और व्याख्याओं में पांच दिन से ही प्रारोपणा प्रारम्भ की जाती है। 24 विकल्प के बाद के अंतिम चार बिकल्प तो निर्विवाद हैं- (1) लघु (2) गुरु (3) संपूर्ण (4) अपूर्ण / यो कुल अढाईम। अपेक्षा से आचारांग और निशीथसूत्र के अध्ययन एवं विभागों की जोड़ को भी अट्ठाईस प्राचारप्रकल्प कहा जाता है। निशीथसूत्र का प्रमुख विषय अनिवार्य कारणों से या कारणों के बिना संयम की मर्यादाओं को भंग करके यदि कोई स्वयं आलोचना करे तब किस दोष का कितना प्रायश्चित्त होता है, यह इस छेदसूत्र का प्रमुख विषय है। जो बीस उद्देशों में इस प्रकार विभक्त है पहले उद्देशक में गुरुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोषों का प्ररूपण है। उद्देशक 2 से 5 तक में लधुमासिक प्रायश्चित्त योग्य दोषों का प्ररूपण है। उद्देशक 6 से 11 तक में गुरुचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोषों का प्ररूपण है / उद्देशक 12 से 19 तक में लघचौमासी प्रायश्चित्त योग्य दोषों का प्ररूपण है। बीसवें उद्देशक में प्रायश्चित्त देने एवं उसे वहन करने की विधि कही गई है। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार की शूद्धि आलोचना और मिच्छामि दुक्कडं के अल्प प्रायश्चित्त से हो जाती है। अनाचार दोष के सेवन का ही निशीथसूत्रोक्त प्रायश्चित्त होता है। यह स्थविरकल्पी सामान्य साधुनों की मर्यादा है। जिनकल्पी या प्रतिमाधारी आदि विशिष्ट साधनावालों को अतिक्रम आदि का भी निशीथसूत्रोक्त गुरु प्रायश्चित्त पाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org