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________________ दूसरा उद्देशक] ऊपर कहे गए इन तीनों सूत्रों का भाव यह है कि लोकव्यवहार या लोकापवाद को लक्ष्य में रखकर श्रमण को अन्यतीर्थिक, गृहस्थ या अपारिहारिक के साथ नहीं आना-जाना चाहिए / हर जगह इनके साथ जाने-आने से देखने वालों के मन में कई विकल्प उत्पन्न होते हैं / __कुछ लोग सोचते हैं—“निम्रन्थ श्रमणों की चर्या और अन्यतीथिकादि की चर्या भिन्न-भिन्न है फिर भी इनके साथ क्यों आते-जाते हैं ?" कुछ लोग सोचते हैं-'ये श्रमण और ये अन्यतीर्थी केवल वेष से भिन्न-भिन्न दिखाई देने हैं, अन्तरंग तो इनका समान प्रतीत होता है अतएव ये सदा साथ रहते हैं।" अपारिहारिक प्रायः दोषसेवी होता है इसलिए जन साधारण में इसकी श्रमणचर्या प्रसंशनीय नहीं होती अतः उसके साथ आने जाने से पारिहारिक श्रमण की प्रतिष्ठा भी धूमिल हो जाती है / इन कारणों से ही अन्यतीथिकादि के साथ श्रमण का आना-जाना लघुमासिक प्रायश्चित्त योग्य कहा है / मनोज जल पीने और अमनोज्ञ जल परठने का प्रायश्चित्त 43. जे भिक्खू अण्णयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुप्फ पुप्फ आइयइ कसायं कसायं परिट्ठवेइ, परिद्ववेतं वा साइज्जइ / 43. जो भिक्षु अनेक प्रकार के प्रासुक पानी को ग्रहण करके अच्छा-अच्छा पीता है और खराब-खराब परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-साधु साध्वियाँ एषणा के सभी दोष टालकर प्राप्त किये गए निर्दोष पानी का ही उपयोग करते हैं / आगमों में ऐसे पानी को अचित्त एषणीय या प्रासुक कहा गया है। साधारण भाषा में घोवन पानी, गरम पानी, या प्रासुक पानी भी कहते हैं। प्राचारांग आदि में ऐसे पानी अनेक प्रकार के कहे गए हैं। गृहस्थों के घरों में पानी लेते समय लेने वालों को विवेक पूर्वक पानी सम्बन्धी पूरी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। यथा--"यह पानी अब तक अचित्त हुअा या नहीं? अर्थात् कितने देर पहले का बना हुआ है ? यह पानी किस प्रकार बना है ? अर्थात् किन पदार्थों के प्रयोग से अचित्त बना है ? यह पानी किसने किस कार्य के लिए बनाया है ? यह पीने योग्य है ? इसके पीने से प्यास शान्त होगी? यह पानी मेरी शारीरिक स्थिति के अनुकूल है या नहीं ?" इत्यादि विवेकपूर्वक जानकारी आवश्यक है। दश. अ५. उ. 1, गा. 81 में बताया है कि पानी देखने पर कुछ प्रतिकूल लगे तो परखने के लिए अंजलि में थोड़ा सा पानी ले और उसे मुंह में लेकर चखे, यदि पीने योग्य प्रतीत हो तो और लें ले / पीने योग्य न हो तो न ले / ऐसा पानी भूल से ग्रहण हो जाय तो परठ देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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