________________ 42] [निशीथसूत्र विवेचन-परिघट्टण आदि का विवेचन उद्दे० 1 सु० 40 में देखें। अन्य-गवेषित-पात्र ग्रहण का प्रायश्चित्त 27. जे भिक्खू नियगगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरतं वा साइज्जह / 28. जे भिक्खू परगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरतं वा साइज्जह / 29. जे भिक्खू वरगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरतं वा साइज्जइ / 30. जे भिक्खू बलगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरतं वा साइज्जइ / 31. जे भिक्खू लवगवेसियं पडिग्गहं धरेइ, धरतं वा साइज्जइ / 27. जो भिक्षु स्वजन गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। 28. जो भिक्षु अस्वजन गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है / 29. जो भिक्षु प्रधान पुरुष द्वारा गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है / 30. जो भिक्षु बलवान् गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। 31. जो भिक्षु लव गवेषित पात्र को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है / ) विवेचन-१. नियग--पारिवारिक सदस्यों के द्वारा। 2. पर--अन्य श्रावक आदि के द्वारा / 3. वर-प्रधान व्यक्ति-ग्राम, नगर आदि के प्रमुख व्यक्ति, प्रसिद्ध व्यक्ति या पदवीप्राप्तसरपंच आदि के द्वारा / 4. बलवान् -शरीर से या प्रभुत्व से शक्तिसम्पन्न के द्वारा / 5. लव-दान का फल आदि बताकर प्राप्त किया गया / साधु-साध्वियों को पात्र आदि स्वयं गवेषणा करके प्राप्त करना चाहिए, अन्य से गवेषणा करवाकर के प्राप्त करने में अनेक दोष लगने की सम्भावना रहती है / अतः दाता की भावना को समझकर अदीनवृत्ति से स्वयं विधिपूर्वक गवेषण करे / अन्य की गवेषणा का पात्र ग्रहण करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त आता है। दोषों की और प्रायश्चित्तों की विस्तृत जानकारी के लिए निशीथचूणि देखें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org