SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [निशीयसूत्र 32. जो भिक्षु केवल अपने लिये कतरणी की याचना करके लाता है और बाद में अन्य किसी साधु को देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। 33. जो भिक्षु केवल अपने लिये नखछेदनक की याचना करके लाता है और बाद में अन्य किसी साधु को देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है / 34. जो भिक्षु केवल अपने लिये कर्णशोधनक की याचना करके लाता है और बाद में अन्य किसी साधु को देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन–साधु समुदाय में भिन्न-भिन्न साधुओं के भिन्न-भिन्न आवश्यक कार्य होते हैं, अतः सूई आदि ग्रहण करते समय भाषा का विवेक रखना चाहिये / अर्थात् किसी कार्य या व्यक्ति का निर्देश नहीं करना चाहिये / निर्देश करे तो उसी के अनुसार व्यवहार करना चाहिये, शेष सूत्र 26 से 30 तक के विवेचन के समान समझना चाहिये। प्रविधि प्रत्यर्पण का प्रायश्चित्त 35. जे भिक्खू सूई अविहीए पच्चप्पिणेइ, पच्चप्पिणेतं वा साइज्जइ / 36. जे भिक्खू पिप्पलगं अविहीए पच्चप्पिणेइ, पच्चप्पिणेतं वा साइज्जइ / 37. जे भिक्खू णहच्छेयणगं अविहीए पच्चप्पिणेइ, पच्चपिणेतं वा साइज्जइ / 38. जे भिक्खू कण्णसोहणगं अविहीए पच्चप्पिणेइ, पच्चप्पिणेतं वा साइज्जइ / 35. जो भिक्षु अविधि से सूई लौटाता है या लौटाने वाले का अनुमोदन करता है / 36. जो भिक्षु प्रविधि से कतरणी लौटता है या लौटाने वाले का अनुमोदन करता है / 37. जो भिक्षु अविधि से नखछेदनक लौटाता है या लौटाने वाले का अनुमोदन करता है / 38. जो भिक्षु अविधि से कर्णशोधनक लौटाता है या लौटाने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन-लौटाने का कहकर लाई हई सूई आदि विवेकपूर्वक ही देनी चाहिये जिससे उपकरण की और स्व-पर के शरीर की क्षति न हो / अर्थात् भूमि आदि पर रखकर लौटाना चाहिये। पात्र-परिष्कार कराने का प्रायश्चित्त 39. जे भिक्खू लाउयपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा अण्णउस्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टाबेइ वा, संठावेइ वा, जमावेइ वा, "अलमप्पणो करणयाए सुहमवि नो कप्पई", जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ, वियरंतं वा साइज्जइ। 39. "पात्र परिष्कार का कार्य स्वयं करने में समर्थ होते हुए गृहस्थ से किंचित् परिष्कार कराना भी नहीं कल्पता है" यह जानते हुए, स्मृति में होते हुए या करने में समर्थ होते हुए भी जो भिक्षु तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र व मिट्टी का पात्र अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से बनवाता है, उसका मुख ठीक करवाता है, विषम को सम करवाता है या अन्य साधु को कराने की आज्ञा देता है अथवा इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy