________________ 16] [निशीथसूत्र जितने उपकरण सदा पास में रहते हैं वे काम लेते-लेते जब खराब हो जाते हैं तब उनका परिष्कार या सुधार स्वयं करना अथवा कभी अन्य से करवाना आवश्यक हो जाता है, उस समय ही गृहस्थ से उत्तरकरण करवाने की सम्भावना होती है। अतः सूत्रनिर्दिष्ट उत्तरकरण क्षेत्र काल आदि की अपेक्षा से पास में रखे गये-सूई, कतरणी, नखछेदक व कर्णशोधनक सम्बन्धी ही समझने चाहिए। वर्तमान में सूई, कतरणी व नखछेदनक रखने की परिपाटी नहीं है। क्योंकि ये धातु-निर्मित होने के कारण रखना अकल्पनीय माना जाता है। प्रस्तुत सूत्रों में वर्णित सूई, कतरणी, नखछेदनक तथा आचारांगसूत्र और व्यवहारसूत्र में वणित-चर्मछेदनक आदि उपकरण धातुनिर्मित ही सर्वत्र उपलब्ध होते हैं तथा आगमों में पात्र के सिवाय धातु युक्त उपकरण की अकल्पनीयता का कोई पाठ नहीं मिलता है / परिग्रह का मूल ममत्व है बहुमूल्य वस्तुओं पर ही प्रायः ममत्व अधिक होता है-अतएव यमी-श्रमण धन (प्रचलित सिक्के), स्वर्ण, रजत (चाँदी) तथा उनसे निमित वस्तुएँ न रखे, ऐसे निषेध आगमों में अनेक जगह मिलते हैं, देखिए दशवकालिक अ० 10 गा० 6 में "अहणे णिज्जायसवरयए" तथा उत्तराध्ययन अ० 35 गा० 13 में "हिरण्णं जायरूवं च मणसा वि न पत्थए" इत्यादि; किन्तु लोहे की सूई, कैंची, नखछेदनक, कर्णशोधनक और चर्मछेदनक आदि रखने का सर्वथा निषेध किसी पागम में उपलब्ध नहीं है / अतः इनका एकान्त निषेध करना उचित प्रतीत नहीं होता है। आगमों में केवल पात्र के प्रसंग में तीन जाति के सिवाय अन्य अनेक जाति के पात्र ग्रहण करने का निषेध है / उसमें केवल धातु के ही निषेध का वर्णन नहीं है किन्तु पत्थर, काँच, दाँत, सींग, चर्म, वस्त्र, संख आदि अनेक जाति का निषेध है, जो केवल पात्र के लिए समझना ही उपयुक्त है। सभी उपकरणों के लिए वह विधान उपयुक्त नहीं हो सकता। अन्यथा वर्तमान में रखे जाने वाले काँच, दाँत, आदि के अनेक उपकरणों का निषेध हो जाएगा। अत: कभी औपग्रहिक उपधि या अध्ययन में सहायक सामग्री धातु (लोहे प्रादि) की भी रखी जा सकती है। यह इन उत्तरकरण सूत्रों और अन्य आगम स्थलों की विचारणा से स्पष्ट होता है। 3. अण्णउत्थिय गारस्थिय भिक्षु अपना कार्य स्वयं कर सकता है या अन्य शिष्य आदि से करा सकता है तथा साधु के अभाव में किसी कारण से वह न कर सके तो साध्वी से भी करवा सकता है, ऐसा करने से वह प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता है किन्तु गृहस्थ से कराने पर प्रायश्चित्त आता है / प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थ के लिए “अण्णउत्थिय-गारत्थिय" शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसके लिए भाष्य में आठ प्रकार के गृहस्थ कहे गये हैं ! उन गृहस्थों से भी किस क्रम से कार्य कराना चाहिए, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है"तेसि गिहत्थाण कारावणे इमो कमो-- पच्छाकड, साभिग्गह, निरभिग्रह भद्दए वा असण्णी। गिहि अण्णतिस्थिए वा, गिहि पुवं एतरे पच्छा // -भा. गा.६२९ तथा 1929 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org